प्रत्येक युग में अनेकानेक साहसियों को हिमालय अपनी ओर आकर्षित करता रहा है। हिमालय सदा से ही घुमक्कड़ों की पहली पसंद रही है। धार्मिक चेतना को विकसित करने, स्वयं की खोज में निकले यायावर या ईश्वर की तलाश में निकले सन्यासियों का पहला बसेरा हिमालय ही रहा है। और इसका कारण है हिमालय की उच्च जागृत ऊर्जा जो कि अपने पास अमूमन सभी को आकर्षित करती रहती है। समय-समय पर हिमालयी घुमक्कड़डों के दिलों में विराट हिम शिखरों की भव्यता ने आध्यात्मिकता की ज्योति जलायी है और उसी ज्योति के कारण घुमंतुओं ने दुर्गम पहाड़ों को नाप दिया। अतः दशकों से घुमक्कड़डी हिमालय का गौरवगान करते हुए आ रही है। आज मैं भी ‘आदि कैलाश व ओम पर्वत’ (Adi Kailash and Om Parvat) की अपनी इस यात्रा वृतांत के माध्यम से हिमालय का गौरव व मंगलगान करने जा रहा हूँ। यह यात्रा मैंने अपने बाल सखा अभिषेक (आशु) के साथ की। जिसके साथ बैठकर कभी “क,ख,ग,घ..” सीखे थे और साइकिल में ट्यूशन की बहुत दूर लगने वाली खूबसूरत राइड की थी उसी के साथ आज लगभग 1300 किलोमीटर की मोटरसाइकिल राइड करने जा रहा था। हांलाकि इससे पहले भी कई लम्बे सफर हम साथ में तय कर चुके थे लेकिन यह सफर थोड़ा हटके होने वाला था। और अब मैं उन सभी दैवीय शक्तियों व पंच महा भूतों का स्मरण करता हूँ जिन्होंने हिमालय की अनेक यात्राओं में मेरा साथ दिया व अपना आशीर्वाद हमेशा बनाए रखा व मैदानी क्षेत्रों से होकर हिमालय का आलिंगन करने तक जिन अनेक ग्राम देवताओं की सीमाओं से होकर हम गुजरे उन सभी का स्मरण करते हुए मैं यहाँ से आगे लिखना प्रारंभ करता हूँ। और अब मैं आप सभी हिमालय घुमक्कड़ी के पाठकों को अपने शब्दों में बैठाकर कैलाश ले जाने का प्रयास कर रहा हूँ। आइए चलते हैं।
सोर घाटी की ओर
पहला दिन – कोटद्वार से पिथौरागढ़
तिथि – 11 मई 2024
दिन – शनिवार
प्रस्थान का समय – प्रातः 3.30 बजे
प्रस्थान स्थल – कोटद्वार
गंतव्य – पिथौरागढ़
दूरी – 410 किमी
ऊँचाई लाभ – 1,134 मीटर (3,720 फीट)
क्षेत्र – कुमाऊँ-मंडल
राज्य – उत्तराखण्ड
आपका स्वागत है! आप इस यात्रा वृतांत के माध्यम से ‘आदि कैलाश व ओम पर्वत’ (Adi Kailash and Om Parvat) की मानसिक यात्रा करने जा रहे हैं। इस यात्रा के प्रथम दिन हमने उत्तराखण्ड के पौड़ी जनपद के दक्षिणी छोर में स्थित गढ़वाल के द्वार कोटद्वार से पूर्वी छोर पर सीमांत जनपद पिथौरागढ़ तक का सफर तय करने की योजना बनाई। पिथौरागढ़ को पहले दिन का पड़ाव तय करने से पहले हमें काफी मशक्कत करनी पड़ी। दरअसल हम पहले दिन ज्यादा से ज्यादा दूरी तय करना चाहते थे। यात्रापथ क्या होना चाहिए और कहाँ-कहाँ रूकना है इस सबकी चिंता मेरे जिम्मे थी। दरअसल पिथौरागढ़ पहुँचने के दो रास्ते हैं एक वाया अल्मोड़ा और दूसरा वाया टनकपुर। मैंने दोनो ही रास्तों की जाँच-पड़ताल शुरू कर दी। अगर हम अल्मोड़ा के रास्ते जाते हैं तो कोटद्वार से पिथौरागढ़ 378 किलोमीटर की दूरी पर पड़ता है और वहीं दूसरी ओर अगर हम टनकपुर के रास्ते से जाएँ तो ये ही दूरी 410 किलोमीटर की होने वाली थी। अल्मोड़ा के रास्ते में हमें काफी संकरी-घुमावदार सड़कों से होकर गुजरना पड़ता जहाँ हमारी मोटरसाइकिल की गति काफी सीमित रहती जिस कारण हमें पिथौरागढ़ पहुँचने में रात हो सकती थी और सुरक्षा कारणों से हम रात में राइड नहीं करना चाहते थे। साथ ही कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा लगाई गई आग के कारण नैनीताल-अल्मोड़ा मार्ग पर वनाग्नि ने हाहाकार मचाया हुआ था जिस कारण नैनीताल प्रशासन कई घण्टो के लिए अल्मोड़ा-नैनीताल के बीच सड़क मार्ग पर आवा-जाही को रोक रहा था जो कि हमारे लिए मुसीबत बन सकता था। इसलिए हमने बनबसा-टनकपुर के रास्ते ही जाना बेहतर समझा। टनकपुर के रास्ते जाने की सबसे अच्छी बात ये थी कि हमें लगभग 250 किलोमीटर तक की सीधी दो लेन चौड़ी सड़क पर राइड करने को मिलता जिसमें हम एक अच्छी गति से सफर तय कर सकते थे और अपने गंतव्य पिथौरागढ़ समय पर पहुँच सकते थे। तो इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए हम दोनो ने परस्पर तय किया कि हम राष्ट्रीय राजमार्ग 9 से ही जाऐंगे।
सुबह करीब 3:30 बजे हम अपने घर से रवाना हो चुके थे। सुबह जल्दी निकलने के पीछे कारण रास्ते की झुलसाती गर्मी से बचना था। तराई भाबर के जिस रास्ते से हम गुजरने वाले थे वह दिन के समय गर्म हवाओं के लिए प्रसिद्ध था इसलिए हमने ठण्ड-ठण्ड में आबादी वाले क्षेत्र को पार करने का फैसला किया। लेकिन प्रकृति जैसे हमारी चिंता समझ चुकी थी इसलिए उसने हमारे लिए इस यात्रा को सुगम बनाने के लिए रास्ते में जमकर बरसात कर दी। कहाँ हम लू से बचने की बात सोच रहे थे और कहाँ अब हम बीच हाइवे पर अपनी बरसाती पहन रहे थे। खैर कुदरत के करिश्मे वो ही जाने। चौड़ी व खूबसूरत सड़क पर मई माह की सुहावनी बारिश का लुत्फ उठाते हुए हम काशीपुर, रूद्रपुर, किच्छा, खटीमा, बनबसा होते हुए टनकपुर पहुँच गए। यहाँ तक हम 255 किलोमीटर दूरी तय कर चुके थे। सुबह जल्दी घर से निकलने के कारण कुछ खाया नहीं था इसलिए अब भूख लगने लगी थी। इसलिए हमने एक अच्छे से रेस्तरां पर बाइक रोककर पेट पूजा करने की सोची। नाश्ता करने के बाद हमने फिर से सफर शुरू किया। टनकपुर से अब पिथौरागढ़ 150 किलोमीटर रह गया था। लेकिन अब शहरी सीधे हाईवे को पीछे छोड़ हम पहाड़ी रास्तों में प्रवेश कर रहे थे। जैसे ही हम थोड़ा सा आगे गए तो हैरान हो गए क्योंकि बारिश की एक बूँद तक नहीं गिरी थी। सचमुच महादेव ने हमारे लिए ही वो बारिश की थी!
जो एहसास बाइक चलाने का उस आबादी वाले सीधे हाईवे में था अब वो पूरी तरह बदल चुका था। अब मोड़ आने शुरू हो चुके थे, पहाड़ों की ठण्डी हवा का भी एहसास अब होने लगा था। प्रकृति का आनन्द लेते हुए और महादेव के सबसे प्रिय धाम आदि कैलाश जाने की उत्सुकता लिए हम एक तय गति से आगे बढ़ रहे थे। लेकिन जैसे ही सूरज ठीक हमारे सर के ऊपर आया वैसे ही थकान की वजह से मुझे नींद आना शुरू हो गई। हम सुबह 3:30 बजे से राइड कर रहे थे। इसलिए थकान के कारण नींद का आना स्वाभाविक ही था। पीछे बैठे पिलीयन राइडर आशु से भी घण्टे भर से कोई बातचीत नहीं हुई थी जिसका मतलब साफ था कि वो भी अब नींद के सोर में जा चुका था। मैंने पहले-पहले नींद के झौंके को नजरअंदाज कर दिया क्योंकि अभी हम दोनो ही शायद रूकना नहीं चाहते थे क्योंकि अभी हम चंपावत भी नहीं पहुँचे थे। उसके बाद हम लगभग दस से बारह किलोमीटर आगे निकल आए। और अब जो मैं साझा करने वाला हूँ वो शायद मेरे हितैषियों को पसंद नहीं आऐगा और हो सकता है कि वो इस यात्रा वृतांत को पढ़ने के बाद मुझे फोन भी करें और खरी खोटी सुनाएँ। हुआ यूँ कि बाइक चलाते हुए मुझे अचानक एहसास हुआ कि मेरी आँखें बंद हैं! और जब मैंने अपनी आँखें खोली तो मैं सड़क पर लगभग 60 किमी/घण्टे की रफ्तार से बाइक चला रहा था! मैं नहीं जानता कि कितने देर मेरी आँखे चलती बाइक में बंद थी, पाँच सेकंड या उससे ज्यादा? वो समय जितना भी रहा हो, हमारे लिए खतरनाक साबित हो सकता था! इसलिए जब मैं चेतन अवस्था में आया तो कुछ पल के लिए घबरा गया। तब तो हमने तुरंत ही एक अच्छी सी जगह देखकर बाइक किनारे पर लगाई और चीड़ के सूखे पत्ते जिन्हें उत्तराखण्ड के गढ़वाल क्षेत्र में पिरूल कहते हैं, के उपर मेट बिछा कर सो गए।
जमीन पर लेटते ही माँ धरती ने कब हमें अपनी गोद में गहरी नींद में सुला दिया पता ही नहीं चला। कुछ देर सुस्ताने के बाद व बंजारों वाली नींद लेने के बाद जब हम उठे तो करीब 45 मिनट बीत चुके थे जिसका मतलब था हमने काफी अच्छा पावर नैप ले लिया था। मैं इस वक्त शायद न बता पाऊँ पर उठने के बाद हम खुद को इतना तरोताजा महसूस कर रहे थे जितना सुबह उठकर करते हैं। नींद मनुष्य शरीर की सबसे खास जरूरतों में से एक है और यह एहसास अभी हमें हो रहा था। फिर से हमारा सफर शुरू होता है आगे के लिए। और फिर चंपावत व लौहाघाट होते हुए हम लगभग 6 बजे के आसपास अपने पहले दिन के गंतव्य पिथौरागढ़ पहुँच जाते हैं।
पिथौरागढ़ को देखने की लालसा मन में काफी समय से थी। इसकी खूबसूरत के किस्से बहुत सुन रखे थे। छोटा कश्मीर उपनाम से भी पिथौरागढ़ को संबोधित किया जाता रहा है। यहाँ पहुँचकर यह सब सच लगने लगा क्योंकि यह सचमुच बेहद खूबसूरत पहाड़ी कस्बा है। पिथौरागढ़ पहुँचते ही सबसे पहले हमने रात रूकने का इंतजाम किया। होटेल मिलने के बाद हमने कुछ देर आराम किया और फिर निकल आए पिथौरागढ़ की कुछ झलक देखने के लिए क्योंकि कल सुबह हम जल्दी ही यहाँ से धारचूला के लिए रवाना हो जाऐंगे। होटेल से जैसे ही हम बाहर निकल रहे थे वैसे ही हमारी नजर पड़ी बालकनी से नजर आते लंदन फोर्ट पर। और फिर क्या था मुझे सहसा सोर घाटी का विस्मृत अतीत याद आने लगा। आइए संक्षेप में जानते हैं इस खूबसूरत घाटी के बारे में।
छोटा कश्मीर – पिथौरागढ़
उत्तराखण्ड के अन्य जनपदों की तुलना में पिथौरागढ़ कई रूपों में भिन्न है। इसकी भौगोलिक दशाएँ व सांस्कृतिक लोकजीवन पृथक तरह की विशिष्टताएँ रखता है। नेपाल व चीन की सीमाओं से जुड़ा होने की वजह से यह सामरिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण जनपद है। वर्ष 1960 ई. में अल्मोड़ा जनपद से पृथक करके सृजित जनपद पिथौरागढ़, समुद्रतल से लगभग 5,537 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। आज के विकसित व चकाचौंध युक्त पिथौरागढ़ के पीछे कारण यहाँ गोरखा शासनकाल में अत्यधिक सुरक्षित स्थान होना तथा ब्रिटिश राज में सेनाएँ रखे जाना है। बीसवीं सदी के मध्यकाल तक पिथौरागढ़ से होकर तीर्थयात्री अनेकानेक तीर्थों की यात्रा किया करते थे, जिनमें कैलाश मानसरोवर, आदि कैलाश तथा पशुपतिनाथ प्रमुख है। पिथौरागढ़ की व्यास घाटी व दारमा घाटियों की मनोरम जलवायु आपको यहीं का होने पर विवस कर देगी। यहाँ सिमलगढ़ नामक एक पुराना किला (दुर्ग) है जिसे गोरखों ने बनाया था। जिसे बाद में अंग्रेजों ने लंदन फोर्ट नाम दिया जो वर्तमान में इस जनपद का मुख्य आकर्षण का केंद्र है। शाम होते ही यहाँ की चौड़ी-चौड़ी सड़के अति सुन्दर नजर आती है। नेपाल भ्रमण करने के इच्छुक घुमक्कड़ड यहाँ से झूलाघाट होते हुए नेपाल जा सकते हैं। वर्ष भर एक जैसी जलवायु धारण करने वाला यह पूर्वी सीमावर्ती जनपद हिमालय के सबसे खूबसूरत बसासतों में शुमार है। पंचाचूली की मनोहारी धवल हिम चोटियों का दीदार करना हो तो पिथौरागढ़ आपको अपनी ओर स्वतः ही आकर्षित कर लेगा। यहाँ हमने संक्षेप में पिथौरागढ़ को कुछ-कुछ जानने का प्रयास किया है।
लंदन फोर्ट से संपूर्ण पिथौरागढ़ की खूबसूरत बसासत को देखते-देखते कब अंधेरा हो गया पता ही नहीं चला। अब शाम के करीब 7-8 बज चुके थे। भूख भी लगने लगी थी तो हमने पिथौरागढ़ के स्वादिष्ट पकवानों का आनन्द लेने की सोची। पास ही एक अच्छा रेस्तरां नजर आया और हम उसमें प्रवेश कर गए। मेघना नाम के इस रेस्तरां ने हमारा मन खुश कर दिया। कारण था इसका सुंदर वातावरण। रेस्तरां के मालिक ने चारों तरफ पौधे लगाए हुए थे जो कि काफी प्रभावित कर रहे थे, बैठने की अच्छी व्यवस्था के साथ ही स्वादिष्ट पकवान और छोटे बच्चों के खेलने के लिए कुछेक झूले भी थे। हर तरह से एक बेहतर जगह। हमने अपना खाना ऑर्डर किया ही था कि तब तक बाहर रिमझिम बरसात शुरू हो गई। अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि उस वक्त हम कैसा महसूस कर रहे होंगे। आज का लगभग 410 किलोमीटर का सफर कुछ इस खूबसूरत अंदाज में संपन्न होगा, सोचा नहीं था। फिर क्या था हम खाना चट कर जाने के काफी देर बाद तक भी वहीं बैठे रहे। क्योंकि वहाँ बैठना अच्छा लग रहा था। फिर जब बरसात रूकी तो हमने पास में ही अपने आज के होटल के लिए प्रस्थान किया। होटेल में जाते ही दिन-भर की थकान और खाना खाने के बाद तुरंत ही दोनो को नींद आ गई। और इस तरह से आज का दिन हमारा संपन्न हुआ। अब अगले दिन के रोमांच की चर्चा आगे करेंगे जिसमें हम पिथौरागढ़ से गुंजी तक का सफर तय करेंगे।
व्यास घाटी की ओर
दूसरा दिन – पिथौरागढ़ से गुंजी
तिथि – 12 मई 2024
दिन – रविवार
प्रस्थान का समय – प्रातः 6.10 बजे
प्रस्थान स्थल – पिथौरागढ़
गंतव्य – गुंजी
दूरी – 162 किमी
ऊँचाई लाभ – 1,573 मीटर (5,261 फीट)
क्षेत्र – कुमाऊँ-मंडल
राज्य – उत्तराखण्ड
मैं बचपन से ही अपने मन में किसी स्थान विशेष की कपोलकल्पित रचनाएँ रच लेता हूँ। धारचूला के लिए भी मेरे मन-मष्तिष्क में ऐसा ही कुछ छपा था। सीमावर्ती शहर होने के नाते भी मुझे हमेशा से इसके भौगोलिक व सांस्कृतिक लोकजीवन को करीब से देखने की इच्छा थी। धारचूला का सस्पेंशन ब्रिज जो भारत के “धारचूला” और नेपाल के “दारचूला” शहर के दोनों हिस्सों को जोड़ता है, पर टहलने का बड़ा मन था। शायद आज वो अधूरी इच्छा इस सफर में पूरी हो जाऐगी इस खयाल के साथ हम सुबह 6 बजकर 10 मिनट पर पिथौरागढ़ से धारचूला के लिए रावाना हो गए। जैसे ही मोटरसाइकिल पर बैठा वैसे ही पहला सवाल जो मैंने खुद से पूछा कि क्या पिथौरागढ़ को बस इतना ही देखना है? क्या पिथौरागढ़ वापस आना है इसका इत्मीनान से दर्शन करने के लिए? तो मैंने खुद को खुद ही उत्तर दिया कि,”हाँ-हाँ; अभी कौन-सा मैंने पूरा पिथौरागढ़ देख लिया! अभी तो बस यहाँ से होके गुजर रहा हूँ। वापस आऊँगा, और सिर्फ पिथौरागढ़ के लिए आऊँगा, फिर दर्शन करेंग संपूर्ण सोर घाटी का”।
और फिर यह सब आत्म वार्तालाप करते हुए देखते ही देखते हम पिथौरागढ़ शहर से बाहर निकल आए। पिथौरागढ़ से धारचूला लगभग 94 किलोमीटर दूर स्थित है। हमें आज ही धारचूला से गुंजी के लिए निकलना था और धारचूला से गुंजी का रास्ता थोड़ा चिंतित करने वाला हो सकता था। इसलिए हम जल्दी से जल्दी धारचूला पहुँचना चाहते थे। कनालीछीना, अस्कोट व जौलजीबी के प्राकृतिक सौन्दर्य का आनन्द लेते व रूकते-रूकाते हुए हम लगभग दस बजे के आसपास धारचूला पहुँच गए।
यहाँ हरीश हमारा इंतजार कर रहा था जिसके पास हमारे इनर लाइन परमिट बनाने की जिम्मेदारी थी। जी हाँ, भारत-तिब्बत सीमा की संवेदनशीलता को देखते हुए व्यास घाटी में प्रवेश करने हेतु आगंतुको को इनर लाइन परमिट की आवश्यकता पड़ती है जो कि धारचूला तहसील में उप-जिलाधिकारी द्वारा दिया जाता है। इनर लाइन परमिट बनाने के लिए आपको चिकित्सकीय प्रमाणपत्र, कोविशील्ड/वैक्सीन प्रमाण पत्र, आधार कार्ड व एक फोटो की आवश्यकता होती है। साथ ही ऑनलाइन फीस जमा भी करनी होती है। यह प्रक्रिया ऑफलाइन व ऑनलाइन दोनो ही रूपों में संपन्न होती है। हमने अपने सारे दस्तावेज व्हाट्सएप के माध्यम से हरीश को पहले ही भेज दिए थे और उसने हमारे परमिट पहले ही बना कर रख लिए थे जिस वजह से हमें परेशान नहीं होना पड़ा और एक दिन खराब होने से बच गया। सुबह पिथौरागढ़ से चले हुए हमें तकरीबन 4 घण्टे हो चुके थे और हमने कुछ भी नहीं खाया था। इसलिए हमने हरीश से एक बढ़िया रेस्तरां के बारे पूछा तो उसने सांझ कैफे का पता बता दिया जो कि धारचूला बस स्टैंड के पास में ही था। कैफे बहुत सुंदर था। हमने थकान भरे अपने कन्धों को आराम दिया और खाना ऑर्डर करके अपने फोन पर लग गए। मैं घर पर सूचित करना चाहता था कि हम अपनी यात्रापथ के आखिरी नेटवर्क क्षेत्र में पहुँच गए हैं और यहाँ से आगे अब मोबाईल नेटवर्क उपलब्ध नहीं रहेंगे जिस कारण बात नहीं हो पाऐगी। वापसी आने पर या नेटवर्क क्षेत्र में आने पर मैं खुद ही संपर्क साध लूँगा।
यह सबसे जरूरी जिम्मेदारी थी जो मैंने पूरी कर ली। क्योंकि जब भी घर से बाहर घूमने निकलता हूँ तो घर पर अपडेट देना हमेशा भूल जाता हूँ जिस वजह से मुझे घर पहुँचकर डाँट सुननी पड़ जाती है। हमने अपना खाना खाना शुरू ही किया था कि तबतक हरीश भी हमारे परमिट लेकर आ पहुँचा। लेकिन हैरानी यह हुई कि अभी-अभी हम बाहर से आए थे तब तो एकदम चटक धूप खिली हुई थी। लेकिन हरीश को भीगे देखकर हम हैरत में पड़ गए। उसके द्वारा बताया गया कि बाहर बारिश शुरू हो गई है। और यह सुनकर गुंजी के मार्ग की हालत को सोचकर मन आशंकित हो उठा! अब क्या होगा? बारिश से रास्ता बंद हो गया तो क्या होगा? ऐसे ही कुछ विचार दिमाग में आने लगे। लेकिन तुरंत मैंने खुद को समझाना शुरू किया कि,” यह बारिश दक्षिण-पश्चिम मानसून के कारण होने वाली बारिश नहीं है क्योंकि इस मॉनसून को अभी उत्तराखण्ड तक पहुँचने में पूरा एक महीना से ज्यादा समय लगेगा। इसलिए इस झुरमुट बूँदा-बाँदी से घबराने की जरूरत नहीं है”। खाने के साथ ही मेरा आत्म वार्तालाप भी खत्म हुआ और तैयारी हुई आगे सफर में निकलने की। पिथौरागढ़ से गुंजी के लिए रवाना होने से पहले हम मोटरसाइकिल का पैट्रोल टेंक फुल कराना चाहते थे क्योंकि आगे इसके बाद हमें कहीं पेट्रोल फिलिंग स्टेशन नहीं मिलेगा। अब हमसे गलती ये हो गई कि धारचूला पहुँचने की जल्दीबाजी के चक्कर में हम भारत के आखिरी पेट्रोल फिलिंग स्टेशन को लगभग 3 किलोमीटर पीछे छोड़ आए जिस वजह से हमें वापस पीछे जाके पेट्रोल भरना पड़ा।
धारचूला से गुँजी की ओर
पेट्रोल टेंक फुल करने के पश्चात हमने मोटरसाइकिल के टायरों में हवा चैक कारवाई और फिर निकल पड़े व्यास घाटी के रोमांचक सफर में। लेकिन जैसे हम थोड़ा-बहुत चले थे वैसे ही हमें रूकना पड़ गया! दरअसल धारचूला व गुंजी के बीच में हमेशा जेसीबी मशीनें रास्ता बनाने व भूस्खलन के कारण सड़क पर आए हुए मलबे को हटाने का काम करती रहती है। जिस कारण बीच-बीच में कुछ घण्टों के लिए आवा-जाही रोक दी जाती है। इसलिए हमें लगभग आधा घण्टा इंतजार करना पड़ा जिसके बाद रास्ता खुल गया।
और अब यहाँ से शुरू होने वाला था व्यास घाटी का मजेदार व साहसी बाइक राइड। धारचूला से गुंजी की दूरी लगभग 68 किलोमीटर की होगी। काली नदी के साथ-साथ आँख मिचौली करते हुए कैलाश-मानसरोवर यात्रापथ के इस प्राचीन मार्ग पर जिससे न जाने कितने ही यात्री पैदल चलकर गुंजी व उसके बाद लिपुलेख दर्रे को पार करके हुण देश पहुँचे होंगे। जहाँ से उन्होंने दर्शन किए होंगे महादेव के निवास कैलाश के व साथ ही अंजुली में भरा होगा दिव्य व पवित्र मानसरोवर झील का जल। न जाने कितने ही शौका व्यापारियों के घोड़े-खच्चरों के दल यहाँ से भोटांतिक प्रदेश को भारत-तिब्बत व्यापार की पंरपरा को निभाने के लिए गुजरे होगें। अस्सी से नब्बे किलोमीटर प्रति घण्टे की रफ्तार से जिस खूबसूरत सड़क पर अभी हम बाइक की सवारी कर रहे थे कभी इसी सड़क पर रहें होंगे सिर्फ पत्थर और मिट्टी के ढ़ेर। जिन्हें पार करने में यकीनन कई दिनों का समय लगता रहा होगा। इन्हीं सब विचारों को सोचते हुए हम तवाघाट जा पहुँचे। तवाघाट में धौलीगंगा नदी काली नदी में बाईं ओर से आकर मिलती है। गरजती व मचलती काली तथा धौली नदियों को मिलते हुए देखना यादगार अनुभव है। तवाघाट से ही धौली के दाँए किनारे दारमा घाटी का मार्ग जाता है। तवाघाट दरअसल दारमा और चौदास-ब्यास का प्रवेश द्वार है। मौसम सुहावना बना हुआ था। कभी धूप तो कभी झुरमुट बरसाता हो जाती थी।
माल्पा – अतीत की काली यादें
काली नदी के तीर होते हुए, झूलते हुए पहाड़ों व उनसे गिरते झरनों के ठण्डे पानी के छींटो से भीगते हुए मोटरसाइकिल चलाना बेहद खूबसूरत सा लग रहा था। रमणीक घाटी में आगे बढ़ते हुए धीरे-धीरे हमें कैलाश-मानसरोवर के इस जोखिमपूर्ण यात्रापथ की खबरों की भी याद आ रही थी जो हमने इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया के माध्यम से सुन रखी थी जिनमें इस रास्ते में बादलों का फटना, भूस्खलन व पहाड़ दरकने की खबरे आम थी। और थोड़ी ही दूर आगे बढ़ने पर आया माल्पा। 18 अगस्त वर्ष 1998 की सुबह से पहले, नेपाल सीमा पर काली नदी से सटा माल्पा एक खूबसूरत सा गाँव हुआ करता था। लेकिन 18 अगस्त की सुबह 3 बजे आई उस आपदा ने माल्पा की संपूर्ण बसासत को काली में समा दिया। कई परिवार, मवेशी, घर, ईष्टों के थान सब बह गए। यह भूस्खलन भारत के सबसे खराब भूस्खलनों में से एक था। वर्ष 1998 के उस विशाल भूस्खलन ने उत्तराखण्ड के पिथौरागढ़ जिले के उच्च हिमालयी कुमाऊँ क्षेत्र की काली घाटी के एक पूरे के पूरे समाज का अंत कर दिया। जिस आँगन में बचपन खेला करता था वहाँ अब रोखड़ बना हुआ है। आंकड़ो की माने तो भूस्खलन की शुरुआत 16 अगस्त को हुई, जिससे बड़े-बड़े पत्थर गिरने लगे और शुरू में तीन खच्चरों की मौत हो गई।
कुल 221 लोग मारे गए, जिनमें 60 हिंदू तीर्थयात्री शामिल थे जो “कैलाश मानसरोवर यात्रा” के तहत तिब्बत की यात्रा कर रहे थे। पत्थरों का गिरना 21 अगस्त तक जारी रहा। रूह तक कांप जाती है उस भयंकर मंजर की कल्पना मात्र से। खैर अतीत की उन काली विस्मृतियों को पीछे छोड़ हम काली नदी के साथ-साथ आगे बढ़ने लगे और फिर खड़ी चढ़ाई चढ़कर पहुँच गए छियालेख।
छियालेख
कैलाश-मानसरोवर यात्रापथ पर यह लगभग ग्यारह हजार फीट पर एक समतल पठार है। जैसे ही हम यहाँ पहुँचे वैसे ही इस रमणीक स्थल की खूबसूरती ने हमें रोमांचित कर दिया। क्योंकि अभी हम एकदम एक पठार पर खड़े थे और यहाँ से नजर आता काली का वृहद विस्तार, व्यास-चौदास की बसासतें और बादलों की ओट में छिपी नेपाल के आपी-नाम्पा शिखर मन को लुभा रहे थे। यह स्थल अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए बेजोड़ है। एक और नेपाल की हिममण्डित चोटियाँ हैं तो दूसरी और येलबाधूरा का वनस्पति विहीन क्षेत्र।
Photo by Ankita Kharayat
यहाँ छियालेख के मध्य में छेतो माटी व बर्म देवता के मंदिर भी स्थित है साथ ही यहाँ भारत-तिब्बत सीमा पुलिस की चौकी भी स्थित है। यहीं पर पहली दफा धारचूला से गुँजी की बीच में इनर लाइन परमिट चैक होता है। सभी चैक पोस्टों में इनर लाइन परमिट चैक करवाने की जिम्मेदारी आशु की थी और वह यह जिम्मेदारी बखूबी निभा रहा था। अब यहाँ से ठंड बढ़ने लगी थी। शाम होने को थी और बारिश ने भी मौसम सुहावना कर दिया था। इसलिए जब तक आशु ने इनर लाइन परमिट चैक करवाया तब तक मैंने बैग से अपनी जैकेट निकाल ली। बस अब यहाँ से हमें गर्ब्यांग जाना था और उसके बाद हम गुँजी पहुँच जाऐंगे।
गर्ब्यांग
गर्ब्यांग व्यास घाटी का सबसे बड़ा गाँव है। पूर्व कालखण्ड में इसकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। लेकिन जब भारत-तिब्बत व्यापार मार्ग खुला तो इस गाँव में सम्पन्नता आनी शुरू हुई। इसका कारण था तिब्बत की ताकलाकोट मण्डी का यहाँ से केवल दो पड़ाव दूर होना। जिस वजह से भोटांतिक प्रदेश से आने वाले भोटिया व्यापारी सपरिवार यहाँ पड़ाव करने लगे और गर्ब्यांग समृद्ध होता चला गया। वर्षा प्राकृतिक आपदा से बचने के लिए यहाँ के लोग कून देवता की पूजा करते हैं। सीमा पर मौजूद होने की वजह से इस गाँव का जिंदा रहना अति आवश्यक है। परन्तु एक लम्बे अर्से से यह गाँव धंस रहा है। काली नदी भी रह रहकर अपनी विशाल जल राशि के दबाव में इसे नीचे से काट रही है। अधिकांश लोग गाँव छोड़कर जा चुके हैं लेकिन कुछ लोग गाँव में आते रहते हैं। धंसते हुए व दरार ग्रस्त मकान और उजड़े खेत, शौका समाज के संघर्ष की कहानी को बयां करने के लिए पर्याप्त है। आगे बढ़े तो नपल्चू गाँव आ गया जो कि काली नदी के इस ओर का आखिरी गाँव था। इसके बाद हम गुँजी में प्रवेश कर रहे थे।
गुँजी
पिथौरागढ़ से शुरू हुआ हमारा सफर अब समाप्त होने वाला था। हम गुंजी पहुंचने वाले थे। आदि कैलाश (ज्यौंलिंगकांग) की ओर से आती कुटी यांकती नदी नपल्चू और गुँजी के बीच से होकर गुजरती हुई ओम पर्वत की ओर से आती काली नदी में मिल जाती है। गुँजी की भौगोलिक स्थिति को देखें तो यह एक तिराहा जंक्शन है। जिसके बांई ओर का सीधा रास्ता आदि कैलाश और पार्वती सरोवर (ज्यौंलिंगकांग) के लिए जाता है और दूसरा रास्ता दाईं ओर 180⁰ पर ओम पर्वत (नाभीढांग) के लिए। गुँजी सीमा पर स्थित एक बड़ा गाँव है। यहाँ गुँजियाल लोगों की बसासत है। ओम पर्वत की ओर से आती काली नदी का यहाँ कुटी यांकती नदी से संगम के बाद उसका आगे बढ़ता खुला विस्तार आकर्षक लगता है। गुँजी, उत्तराखण्ड के सुदूर पूर्वी छोर पर व्यास घाटी में पिथौरागढ़ जनपद के धारचूला विकासखण्ड में उच्च हिमालयी गाँवों में से एक है। बर्फ से लदी पहाड़ियों की तलहटी में सिंधुतल से इसकी ऊँचाई 10,557 फीट है। कुटी घाटी के पूर्वी छोर पर, कुटी यांकती और काली नदियों के संगम के पास स्थित गुंजी गाँव उप-जिला मुख्यालय धारचूला से 65 किमी दूरी पर स्थित बेहद रमणीक गाँव है। पास ही भारत के हिमवीर भारत-तिब्बत सीमा पुलिस व सशस्त्र सीमा बल के कैंप भी स्थित हैं जो दिन रात सतर्क प्रहरी बने हमारी सीमाओं की रक्षा करते हैं। सर्दी आते ही गुँजी के रहवासी निचले स्थानों में चले जाते हैं, क्योंकि इस क्षेत्र में अत्यधिक बर्फबारी होती है जिसमें कि यहाँ रहना दूभर हो जाता है। सुबह से हम लगभग 162 किलोमीटर तक का सफर तय कर चुके थे। शारीरिक थकान के साथ अब मानसिक थकान का भी एहसास होने लगा था क्योंकि इस दुर्गम स्थान पर आने के लिए जितनी मेहनत मोटरसाइकिल के क्लच पर अँगुलियों ने और एक्सीलेटर पर रेस चढ़ाने के लिए दाँए हाथ ने कि थी उतनी ही मेहनत मेरे उत्साहित मन ने भी की। जब सीमा सड़क संगठन द्वारा बनाई हुई बेहतरीन सड़क पर मोटरसाइकिल घाटियों को चीरते हुए आगे बढ़ रही थी तो मन हिलोरे ले रहा था और व्यास घाटी की खूबसूरती के कल्पनाएँ रच रहा था।
जैसे ही आप कुटी यांकती नदी पर बने पुल को पार करते हो वैसे ही आपके पास रात्रि-विश्राम के लिए दो विकल्प होते हैं। पहला तो आप गुँजी में रूक सकते हैं जो ओम पर्वत के मार्ग पर हैं और दूसरा नाबी में जो कि आदि कैलाश के रास्ते में पड़ने वाला छोटा पर खूबसूरत गाँव है। हमने गुँजी में रूकने का फैसला किया। गुँजी की तरफ जैसे ही हमने मोटरसाइकिल घुमाई वैसे ही कुछ दूरी पर जो पहला होमस्टे हमें दिखा उसने दिल खुश कर दिया।
ओम पर्वत के मार्ग से सटा यह होमस्टे पहली नजर में ही अपनी सुंदरता से हमें मोह चुका था, इसलिए मोटरसाइकिल पर अनायास ही ब्रेक लग गए और हमने यहीं रूकने का फैसला किया। किस्मत से हमें ऊपर वाला कमरा मिला जिसके बाहर ये खूबसूरत सा छज्जा था जिससे हम यहाँ से नजर आते खूबसूरत हिमशिखरों को निहार सकते थे। कमरे में गए। सारा सामान रखा और फिर हमें राजेश भाई ने गरम-गरम चाय दे दी। परिचय की दृष्टि से बता दूँ कि राजेश भाई इस होमस्टे का हँसमुख खानसामा है जो कि बड़ी ही सिद्दत से अपना काम करता है। राजेश भाई नेपाल मूल का है। और इसका पता मुझे तब चला जब मैंने उनसे गढ़वाली-कुमाऊँनी में बातचीत करने की कोशिश की। तभी साथी कर्मचारी जो दिखने में युवा था, ने बताया कि ये भाई नेपाल से है इसे हिन्दी और कुमाऊँनी नहीं आती। अपनापन और सादगी राजेश भाई के पास जाके स्वयं ही महसूस हो जाती है। बाहर तेज बर्फीली हवाएँ चल रही थी, बारिश ने तापमान को और भी ज्यादा गिरा दिया था और इस कारण अंधेरा होते-होते काफी ठण्डा हो गया था। थोड़ा आराम करने के बाद हम बाहर टहलने निकले।
गुँजी एक किस्म से पठारीनुमा स्थल पर बसा है। इसके आसपास खुले मैदान है। पास में ही भारत-तिब्बत सीमा पुलिस व सीमा सुरक्षा बल के कैंप लगे हुए थे। वातावरण काफी खुशहाल था। हमने काफी फोटोग्राफ्स लिए और फिर तेज हवा से लगने वाली ठण्ड से बचने के लिए अंदर चले गए और जाकर इस खूबसूरत से छज्जे में जाकर बैठ गए। जिस होमस्टे के छज्जे से मैं गुंजी गाँव की बसासत को निहार रहा हूँ, वह हमारी ‘आदि कैलाश व ओम पर्वत’ यात्रा की आने वाली दो रातों का बसेरा होने वाला है। अब यहाँ कुछ दिलचस्प होने वाला था।
हुआ यूँ कि जब हम यहाँ पहुँचे थे तो आसमान में बादल छाए हुए थे और हल्की-फुल्की बारिश भी हो रही थी। जिस कारण हम दूर पहाड़ों को देखने में असमर्थ थे। लेकिन अचानक मौसम खुला और सामने नजर आने लगे बर्फ से लदे हिम शिखर। मेरी खुशी सातवें आसमान में थी जब बादल छटने के बाद पहली बार मेरी नजर इस छज्जे से बाईं ओर गई जहाँ से सामने नजर आ रही थी नेपाल की एपीआई पहाड़ी जिसे माउंट एपी भी कहते हैं। स्थानीय बोलचाल में आपी नम्पा पर्वत के नाम से प्रसिद्ध माउंट एपी सुदूर पश्चिमी नेपाल में गुरांस हिमाल श्रेणी का एक हिस्सा है, जो भारत से भी नजर आता है।
आपी नम्पा पर्वत शिखर | Mount API
ओम पर्वत व कैलाश मानसरोवर यात्रा मार्ग पर पड़ने वाले यात्री पड़ाव गुँजी से नजर आती सफदे बर्फ से लदी नेपाल की एपी पर्वत चोटी का आकर्षण ही है जिसने मुझे इसके बारे में गहराई से जानने के लिए विवश कर दिया। शायद कभी गुँरास हिमाल का निमंत्रण आ जाए और हिमालयी घुमक्कड़डी को समर्पित मेरा अस्तित्व मुझे खींच ले जाए पड़ोसी देश के हिमाल क्षेत्र के किसी हिमालयी अभियान में, इसी विचार से प्रेरित मैंने इसके बारे में अध्ययन करके कुछ जानकारियाँ प्राप्त करने का फैसला किया।
दरअसल माउंट एपी (API) नेपाल के सुदूर उत्तर-पश्चिम में स्थित है जो कि नम्पा संरक्षण क्षेत्र के अंतर्गत आता है। नेपाल के लिए इस पहाड़ी चोटी का अत्यधिक महत्व है। इसे यहाँ सुदूरपश्चिम का बहुमूल्य रत्न माना जाता है। माउंट एपी समुद्रतल से 7,132 मीटर की ऊँचाई वाला पश्चिमी नेपाल का सबसे ऊँचा पर्वत शिखर है। माउंट एपी बेस कैंप ट्रैक नेपाल के सबसे रोमांचकारी ट्रैकों में एक है। खूबसूरत पगडंडियों, घने जंगलों व आधुनिक सभ्यता से दूर यह एक खुशगवार ट्रैक है। एपी नाम तिब्बती भाषा से आया है जिसका अर्थ है ‘दादी’। आपी हिमाल, सैपाल (7,031 मीटर), माउंट थाडो धुंगा तुप्पा (5368 मीटर), माउंट नंदादेवी (7817 मीटर), राजाम्बा (6537 मीटर) और अन्य चोटियों का शानदार दृश्यावलोकन इस मार्ग का मुख्य आकर्षण हैं। इस ट्रेकिंग को रोमांचक बनाने में यहाँ की खड़ी घाटियाँ, नदियाँ, झरने, उप-उष्णकटिबंधीय जंगल, अल्पाइन चरागाह क्षेत्र, और हिमालय का दूर तक फैला विस्तृत दृश्यावलोकन है। माउंट एपी बेस कैंप से दो घंटे की दूरी पर इस क्षेत्र की पवित्र झीलों में से एक काली धुंगा झील स्थित है। जो कि देखने में बहुत ही खूबसूरत नजर आती है।
कभी योजना बनाकर जाऊँगा जरूर और जिस तरह से इस तरफ से उस छोर के हिमाल को निहारा वैसे ही उधर से अपने भारत के हिमालय का दर्शन भी जरूर करूँगा।
यहाँ सुकून से बैठे हुए काली नदी के पार हिमालय का यह छोर मन को लुभा रहा था। नेपाल हिमालय की इस नैसर्गिक ससुंदरता को देख मन प्रफुल्लित हो उठा। यह साहसिक घुमक्कड़ी का ही फल था जो आज मैं इन कभी न भुलाए जा सकने वाले पलों को जी रहा था। हिमालयी घुमक्कड़डों के हिस्से में हमेशा यह पल आते रहेंगे। मैं मन ही मन सोच रहा था देश ही तो दूसरा है बाकी है तो वो भी अपना हिमालय ही! हिमालय तो एक है! सामान्य बुद्धि का मानुष ही हिमालय में भेद कर सकता है। अपने घर से सैकड़ों किलोमीटर दूर, सिंधुतल से 10,557 फीट की ऊँचाई पर भारत-नेपाल-तिब्बत की सीमा पर, कुटी नदी के तीर एक छोटे से होमस्टे के छज्जे पर बैठ हम दोनो ने घण्टों बातें की। इससे पहले शायद ही कभी इतने फुर्सत के पल हमने साथ में बिताए होंगे। और फिर अंधेरा होने के साथ ही ठण्ड भी बढ़ने लगी और हमने अंदर जाने का फैसला किया।
थोड़े ही देर में राजेश भाई हमें रात के खाने के लिए बुलाने आ गया। हमारी ही तरह बहुत सारे यात्री यहाँ रूके हुए थे। सभी ने साथ में भोजन किया। कुछ गुजराती बंधुओं ने जो हमारे साथ ही भोजन कर रहे थे, हमें चटनी खाने के लिए दी जो वो अपने साथ लेकर आए थे। जिस तरह से गुजराती हर पकवान में मीठा होता है उसी तरह उनकी यही चटनी भी मीठी थी। खाना खाने के बाद सभी लोग अपने-अपने कमरों में चले गए। रात होते-होते पुनः काली नदी के इस छोर पर बरसा शुरू हो गई। मन घबराने लगा। हमें कल सुबह ज्यौंलिंगकांग के लिए रवाना होना है। रास्ते में कई जलधाराएँ पार करनी होती है। बरसात की वजह से उनका जलस्तर बढ़ सकता था और हमारी यात्रा रूक सकती थी। ऐसे ही तमाम नकारात्मक विचारों ने मेरे मन-मष्तिष्क को कुछ ही पल में घेर लिया था। मैंने चुपके से आंखें बंद करी और महादेव से प्रार्थना की कि हमारी इस यात्रा को सफल बनाने में अपना आशीर्वाद प्रदान करें। फिर सबकुछ भोलेनाथ पर छोड़कर बिना कुछ सोचे हम सो गए।
तीसरा दिन – गुंजी से ज्यौंलिंगकांग
छोटा कैलाश की ओर
तिथि – 13 मई 2024
दिन – सोमवार
प्रस्थान का समय – प्रातः 6.00 बजे
प्रस्थान स्थल – गुँजी
गंतव्य – ज्यौंलिंगकांग
दूरी – 48 किमी
ऊँचाई लाभ – 1,207 मीटर (3,961 फीट)
क्षेत्र – भारत-तिब्बत सीमा (कुमाऊँ-मंडल)
राज्य – उत्तराखण्ड
आज नींद जल्दी खुल गई। आशु ने रात कहा था कि भाई सोने से पहले अलार्म जरूर लगा लेना। और उसने ये कई बार कह दिया था। शायद सुबह समय से न उठ पाने का डर रहा होगा। मैंने 5 बजे का अलार्म लगा दिया था। लेकिन सुबह वो अलार्म कोई काम न आ सका। क्योंकि अलार्म से पहले ही हम उठ गए थे। और शायद बहुत पहले, लगभग 3:30 बजे। मेरी नींद टूट गई थी। मैं बिस्तर से उठकर बाहर जाकर आसमान की तरफ देखकर मौसम का मिजाज जानना चाहता था। लेकिन गर्म रजाई से बाहर आने का बिल्कुल भी मन नहीं हो रहा था। जैसे तैसे मैंने हिम्मत जुटाई और उठकर बाहर जाकर छज्जे से ऊपर आसमान की तरफ देखा तो खुशी से मेरी सारी ठण्ड गायब हो गई। क्योंकि मौसम एकदम साफ था। समुद्रतल से काफी ऊँचाई में होने के कारण तारे भी टिमटिमाते हुए साफ नजर आ रहे थे। मैं तुरंत अंदर गया और चिल्ला के बोला,”कि भाई मौसम एकदम कांच बना हुआ है”। जिसका सीधा सा अर्थ था हमें आज आदि कैलाश के अच्छे दर्शन होंगे। और यह कल रात-भर की बरसात की वजह से हुआ था। शायद महादेव तक हमारी प्रार्थना पहुँच गई थी। थोड़ी देर और हमने अपनी-अपनी गर्म रजाई का आनंद लिया क्योंकि अभी शायद चार ही बजे थे। और फिर करीब 6 बजे तक नित्य कर्मों से निवृत्त होकर हमने आज के सफर की तैयारी की। बैग हम यहीं छोड़कर जाने वाले थे क्योंकि वापस आकर आज रात भी हम यहीं पर रूकना था। और फिर कुछ जरूरी सामान को साथ लेकर हम रवाना हो गए आज के रोमांचक सफर में। आज हमें कुटी यांकती नदी के साथ-साथ आगे बढ़ना था। सड़क को लेकर हम आश्वस्त थे क्योंकि गुंजी से ज्यौंलिंगकांग जहाँ से आदि कैलाश के भव्य एंव दिव्य दर्शन होते हैं वहाँ तक बीआरओ द्वारा काफी अच्छी सड़क बनाई गई थी। आज के साफ मौसम को देखकर मैं बहुत खुश था। शायद यह मेरी उस नीले बर्फीले स्वप्नलोक की कल्पना का साकार रूप था जो मैं यहाँ आने से पहले किया करता था। गुँजी से लगभग दो से तीन किलोमीटर पर नाबी गाँव पड़ता है। यह एक बेहद ही रमणीक उच्च हिमालयी गाँव है।
नाबी
उत्तराखण्ड के सीमांत जनपद पिथौरागढ़ का नाबी गाँव अपनी खूबसूरती के लिए प्रसिद्ध है। आदि कैलाश (छोटा कैलाश) के यात्रा मार्ग पर यात्रियों का दिल खोलकर स्वागत करने वाला सीमांत गाँव नाबी, कुटी यांकती नदी के किनारे पर स्थित है। समुद्रतल से 10,857 फीट की ऊँचाई पर नाबी गाँव अपने सुंदर व आरामदायक होमस्टे के लिए भी प्रसिद्ध है। हिमालय के उतुंग हिम विस्तार के बीच बसे नाबी गाँव ने स्वरोजगार के क्षेत्र में एक कीर्तिमान स्थापित किया है जिससे अन्य गाँव भी प्रेरणा लेते हैं। जब यात्री आदि कैलाश की यात्रा के दौरान यहाँ आकर रूकते हैं तो उन्हें व्यास घाटी की संस्कृति, वेशभूषा, खानपान और रहने के तौर-तरीकों को नजदीक से जानने का अवसर मिलता है जिससे वो काफी प्रभावित होते हैं।
पारंपरिक शैली में बने यहाँ के घरों को सैलानी काफी पसंद करते हैं। चीन की सीमा से सटा नाबी गाँव सामरिक दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इस छोटे से रमणीक गाँव की कुल आबादी 500 है जिसमें से भी लगभग 200 लोग ही यहाँ रहते होंगे बाकी अन्य रोजगार व पढ़ाई के लिए शहरों में रहते हैं। 90 परिवारों वाले इस गाँव में मोबाइल नेटवर्क नहीं आते। कुमाऊँ-मंडल विकास निगम के द्वारा गुँजी-नाबी में यात्रियों के ठहरने की सुखद व्यवस्थाएँ की गई हैं। हमने भी इस गाँव का दीदार किया और फिर आगे बढ़ना शुरू कर दिया।
कुटी गाँव
हमने नाबी से आगे बढ़ना शुरू किया। सड़क बहुत अच्छी थी और एकदम खाली भी। और साथ ही ऊँचे-ऊँचे हिम शिखरों के बीच से मोटरसाइकिल लेकर निकलना, मन-मष्तिष्क में एक अलग ही प्रकार के आनन्द का संचार कर रहा था। अब हम कुटी गाँव की ओर बढ़ रहे थे। कुछ ही देर चलने पर आ गया भारत का अंतिम गाँव कुटी। वैसे भारत की सीमाओं से सटे गाँवों को अंतिम गांव की जगह भारत के प्रथम गाँवों की संज्ञा देनी चाहिए। प्रधानमंत्री मोदी जी ने भी माणा दर्रे के पास स्थित अंतिम ग्राम माणा को देश के प्रथम ग्राम की संज्ञा देकर संबोधित किया था। सीमाओं पर स्थित सभी गाँव हमारे सतर्क प्रहरी की भूमिका निभाते हैं। सामरिक दृष्टि से इन गाँवों का आबाद रहना अत्यंत महत्वपूर्ण है। समुद्रतल से लगभग 12,627 फीट की ऊँचाई पर स्थित कुटी गाँव भी भारत-तिब्बत सीमा पर स्थित एक बहुत ही खूबसूरत गाँव है। यहाँ पर यात्रियों का इनर लाइन परमिट चैक होता है तथा उसी के बाद आगे यात्रा की अनुमति मिलती है। उच्च हिमालय पर्वत श्रंखलाओं की तलहटी में बसे इस गाँव के लोग वर्ष में केवल 6 महीने ही यहाँ गुजारते हैं। क्योंकि यह गाँव शीतकाल में पूरी तरह बर्फ से ढक जाता है। वर्ष 1962 से पूर्व भारत-तिब्बत व्यापार ही यहाँ के लोगों का आय का मुख्य आधार था जो कि अब पूर्णतः प्रतिबंधित है। बॉर्डर पर स्थित इस प्रथम गांव में एक ही दुकान है, जिसके ऊपर आने-जाने वाले सैलानियों के लिए चाय-पानी व अन्य छुटपुट खाने की चीजें उपलब्ध कराने का भार रहता है। पास में ही आईटीबीपी का कैंप है जिसकी वजह से इस जगह की रौनक बनी रहती है।
पिथौरागढ़ जनपद के इस अति दुर्गम गाँव का धार्मिक महत्व भी है। स्थानीय लोग बताते हैं कि इस गांव का संबंध महाभारत काल से है। द्वापर युग में जब पांडव अपने अंतिम समय में स्वर्गारोहण को गए तो कैलास मानसरोवर यात्रा मार्ग पर आने वाले कुटी गांव में रहे। सौंदर्य से भरपूर कुटी में पांडवों ने लंबे समय तक यहाँ पर प्रवास किया। उनके प्रवास के अवशेष आज भी बचे हैं। बताया जाता है कि पांडवों की माँ कुंती को कुटी पसंद आया था। यहाँ पर पांडवों ने जिस स्थान पर अपना निवास बनाया वह समतल मैदान से लगभग पांच मीटर ऊंचा है। इस स्थान पर पांडवों के बैठने के लिए बिछाए गए पत्थर आज भी विद्यमान है। बाद में कुंती के नाम से गांव का नाम कुटी पड़ गया। यहाँ पर पांडव पर्वत भी स्थित है। इसमें पांच चोटियां हैं जिन्हें पांच पांडवों का प्रतीक माना जाता है। इस गांव के निकट अतीत में निखुर्च मंडी थी। वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध से पूर्व इस मंडी में भारत-तिब्बत व्यापार होता था और इसी मंडी से तिब्बत जाने का मार्ग था। कैलास मानसरोवर जाने वाले इस मार्ग से भी जाते थे। 1962 के युद्ध के बाद यह मंडी भी समाप्त हो गई और तिब्बत में प्रवेश वर्जित हो गया। अतः यही कारण है कि इस गाँव का नाम पांडवों की माता कुंती के नाम पर पड़ा। गांव के लोग माता कुंती को आज भी देवी के रूप में पूजते हैं।
साभार : विशाल राठौर
ज्यों-ज्यों हम कुटी गाँव से कुटी नदी के साथ-साथ आगे बढ़ रहे थे वैसे-वैसे पेड़-पौधे कम नजर आने लगे। इसका मतलब था कि अब हम सबनिवल व ट्री लाइन क्षेत्र से ऊपर आ चुके थे। सबनिवल क्षेत्र सामान्यतः बर्फ से ढके पहाड़ों पर पौधों के लिए सबसे ऊपरी ऊँचाई वाला निवास स्थान होता है। इससे आगे किसी भी प्रकार की वनस्पति का उगना संभव नहीं होता। लेकिन वैज्ञानिक शोंधो में पता चला है कि हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र जलवायु-प्रेरित वनस्पति बदलाव के लिए अत्यधिक संवेदनशील हैं। पौधे अब वास्तव में उन क्षेत्रों में भी बढ़ रहे हैं, जहाँ कभी ग्लेशियर की चादर हुआ करती थी। जहाँ कई साल पहले साफ-बर्फ के ग्लेशियर थे, अब वहाँ मलबे से ढके पत्थर हैं और उन पर आपको काई, शैवाल और फूल भी नजर आने लगे हैं जो कि बिल्कुल अच्छी खबर नहीं है। इससे हिमालय के नदी तंत्र पर भारी दुष्प्रभाव पड़ेगा। हाल में हुए एक शोध के मुताबिक, एवरेस्ट क्षेत्र सहित पूरे हिमालय की ऊँचाइयों पर नए पौधे उग रहे हैं। शोधकर्ताओं ने बताया कि ये पौधे उन ऊँचाइयों पर बढ़ रहे हैं जहाँ वो पहले नहीं उगते थे। शोधकर्ताओं ने 1993 से 2018 तक ट्री-लाइन और स्नो-लाइन के बीच वनस्पति के विस्तार को मापने के लिए उपग्रह डेटा का उपयोग किया। इस शोध के नतीजे जर्नल ग्लोबल चेंज बायोलॉजी में प्रकाशित हुए हैं।
अब जो नजारा दिख रहा था वो कुछ इस तरह था कि जिधर देखो नंगे भूरे पहाड़, नीला आसमान और बर्फ से लदे हिम शिखर। सड़क कहीं पर पक्की और कहीं पर कच्ची थी। जिन गिरीद्वारों से होते हुए अतीत में भारत के उत्तरी सीमांत की आदिम जातियों के तिब्बती समाज से सांस्कृतिक संबंध स्थापित हुए होंगे आज हम उन्हीं दर्रों से घिरे पहाड़ो के बीच से मोटरसाइकिल राइड कर रहे थे और सन् 1962 से पूर्व अतीत कालीन “शौका-हुणिया व्यापार” मार्ग के साक्षी बन रहे थे। अब हमारा आदि कैलाश सफर का रोमांच चरम पर था। लाहौल-स्पीति घाटियों सा प्रतीत होता यह पूर्वी हिमालयी छोर मुझे मानसिक रूप से अलग ही दुनिया में ले जा रहा था। चारों ओर का वातावरण अपनी मंत्रमुग्ध कर देने वाली आभा से हमें अपने और करीब ला रहा था। हमने जी भर कर इस घाटी के सुन्दर नजारों का लुत्फ उठाया। ज्यौंलिंगकांग अभी तक नही आया था और शायद व्यास घाटी के इस अनछुई सुंदरता में हम इतने खो गए थे कि हम कुछ देर के लिए भूल ही गए कि हम कहाँ जा रहे हैं!
कुछ देर अपनी ही धुन में चलते हुए अचानक हमारी मस्ती में खलल पड़ गई। अचानक एक बहुत बड़ी जलधारा हमारा रास्ता रोके सड़क के बीचों-बीच बह रही थी। यह प्रसिद्ध निखुर्च नाला है जिसे स्थानीय गाइडों द्वारा मूर्खतापूर्ण ढंग से गणेश नाला कहकर संबोधित किया जाता है। जो शायद ब्रह्म पर्वत या उसके आसपास की चोटियों के बर्फ पिघलने के कारण निर्मित हुआ होगा। पानी का बहाव ठीक-ठाक था। इतना कि अब आशु को बाइक से नीचे उतरकर नाले को पार करना था और मुझे धीरे-धीरे बाइक को पार कराना था। इस चक्कर में उसे जूते उतारने पड़े जिस वजह से उसे ठण्डे पानी से होकर जाना पड़ा। ग्लेशियर से आते इस जमा देने वाले ठण्डे पानी ने उसके पैरों को सुन्न कर दिया! वो पैर पकड़कर एक किनारे पर बैठ गया। मैं थोड़ा घबरा सा गया था उस वक्त, ये सोचकर कि कुछ गंभीर समस्य न हो। जूतों के भीतर पैर गरम थे और अचानक पैर बाहर निकालकर ठण्डे पानी में डाल दिए थे तो इसलिए ठण्ड ज्यादा महसूस हुई होगी पैरों को। जैसे तैसे हमने जलधारा को पार किया और फिर आगे रूककर ब्रह्म पर्वत के शानदार दर्शन किए, क्योंकि यहीं से ब्रह्म पर्वत के अच्छे दर्शन होते हैं।
ब्रह्मा पर्वत | Brahma Parvat
यह धवल हिम शिखर “ब्रह्मा पर्वत” है जो कि उत्तराखण्ड के सुदूर पूर्वी छोर पर सीमांत जनपद पिथौरागढ की धारचूला तहसील के अंतर्गत कुमाँऊ-हिमालय की व्यास घाटी में श्री आदि कैलाश मार्ग पर स्थित है। सिंधुतल से 20,738 फीट की ऊँचाई पर स्थित इस हिम किरीट के दर्शन ज्यौंलिंगकांग से 3 किलोमीटर पहले “निखुर्च नाले” से आसानी से हो जाते हैं बशर्ते है आप इसको देखने के लिए लालायित हों। नहीं तो कब आप यहाँ से होकर गुजर जाऐंगे पता ही नहीं चलेगा। जैसा कि इस पर्वत के नाम से ही स्पष्ट है कि यह पर्वत हिंदू त्रिदेवों में सृष्टिकर्ता भगवान ब्रह्मा को समर्पित है व इसे उनका निवास स्थान माना जाता है। स्थानीय लोक कथाओं व किंवदंतियों की माने तो ऐसा कहा जाता है कि संजीवनी बूटी की तलाश में निकले बजरंग बली हनुमान जी इस पर्वत के शिखर पर कुछ समय के लिए रूके थे। स्थानीय जनमानस का यह भी मानना है कि ब्रह्मा पर्वत की ढलानों पर आज भी हनुमान जी के पदचिह्न नजर आते हैं। सदा से ही हिमालय अपनी खूबसूरत हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाओं के माध्यम से खोजकर्ताओं, तीर्थ यात्रियों व प्रकृति प्रेमियों को अपनी ओर आकर्षित करता रहता है। अतः ब्रह्मा पर्वत भी लम्बे समय से पर्वतारोहियों का आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। यहाँ एक महत्वपूर्ण तथ्य भी साझा करना चाहूँगा कि जिस जलधारा को स्थानीय गाइडों ने पर्यटकों को गणेश नाला कहकर परिचय कराया वो दरअसल निखुर्च नाला है और यहीं से ब्रह्मा पर्वत के प्रथम दर्शन होते हैं। निखुर्च क्षेत्र का अपना एक इतिहास है और एक समय में इस क्षेत्र में निखुर्च मंडी हुआ करती थी। अतः ब्रह्मा पर्वत के निखुर्च नाला को गणेश नाला नाम देना गलत है।
सुबह का समय था इसलिए पर्वत एकदम साफ नजर आ रहा था। न जाने किसने इन हिम किरीटों के नामकरण किए होंगे? न जाने पहली बार किसने इन्हें इन नामों से पुकारा होगा? ऐसे ही अनगिनत प्रश्नों में कूदते फांदते हमने आगे बढ़ना प्रारंभ किया। बस थोड़ा-बहुत ही चले थे कि हम ज्यौंलिंगकांग पहुँच गए। खुला मैदान, पठारी भू-भाग, कुछेक कच्ची दुकाने, और लोगों की सामान्य सी संख्या। सबसे अधिक खुशी मुझे यहाँ पहुँचकर जिस बात से हुई वो थी यहाँ कि बेहद कम भीड़। एकदम शांत और सुकून भरा वातावरण। हमने स्थानीय लोगों से पूछकर सबसे पहले अपनी मोटरसाइकिल एक सुरक्षित स्थान पर खड़ी की और फिर थोड़ा आराम किया। हिमालय के इस दुर्गम छोर पर आना बार-बार नहीं होगा। इसलिए इस दिव्य स्थान को मैं आराम से देखना व महसूस करना चाहता था।
आदि कैलाश प्रथम दर्शन
आदि कैलाश के ठीक समाने होकर मैं पूछ रहा था कि दर्शन कहाँ से होंगे? तभी पीछे से किसी सज्जन की आवाज आई कि भय्या बस दो कदम आगे चलिए आपके बाएं हाथ पर है कैलाश! मैं जल्दी से आगे बढ़ा और हैरान हो गया। एकदम स्तब्ध! शून्यवत मेरा मन मष्तिष्क बस शांत हो गए। मेरे सामने खड़ा था श्री कैलाश पर्वत! और मैं बस उसे अनायास ही देखते जा रहा था। यह ऊर्जा का संचरण हो रहा था। शायद इस जगह विशाल सात्विक ऊर्जा का भण्डार है। जो यहाँ हिमालय के इस विराट स्वरूप श्री आदि कैलाश के दर्शन करने आने वाले सभी शिव भक्तों को महसूस होती होगी।
हिमालय में स्थित पंच कैलाशों में उत्तराखण्ड के कुमाँऊ-हिमालय में स्थित आदि कैलाश द्वितीय कैलाश है। प्रथम कैलाश चीन अधिकृत तिब्बत में स्थित कैलाश पर्वत है, द्वितीय कैलाश उत्तराखण्ड में स्थित आदि कैलाश, तृतीय कैलाश श्रीखंड महादेव, चतुर्थ किन्नौर कैलाश, और पाँचवा व अंतिम कैलाश मणिमहेश कैलाश है। भारत के हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड के सीमांत जनपद पिथौरागढ़ की धारचूला तहसील के अंतर्गत व्यास घाटी में सड़क मार्ग से प्रवेश करके, कुटी यांकती नदी के समांतर चलते हुए गुंजी पहुँचा जाता है जो कि कालापानी से आने वाली काली नदी व पार्वती सरोवर से आने वाली कुटी यांकती नदी के संगम स्थल पर स्थित है। गुंजी से बांई ओर मुड़ने पर भारत की सीमा सड़क संगठन द्वारा बनाई गई बेहतरीन सड़क मार्ग से होते हुए लगभग 48 किलोमीटर का रोमांचक सफर तय करने के पश्चात ज्यौंलिंगकांग पहुँचा जाता है जो कि आदि कैलाश का आधार है। यहीं से आपको हिम विराट श्री आदि कैलाश के दर्शन होते हैं।
अपने सामने इस नगाधिराज को यूँ खड़े देखना जीवन की सबसे गहरी अनुभूतियों में शामिल हो गया। एक अलग ही ऊर्जा महसूस होने लगी। देवात्म हिमालय का शिव रूप में पूजित यह हिम शिखर चेतना में सकारात्मक ऊर्जा का चमत्कारिक रूप से नव संचार करने लगा। जिसे आप भी यहाँ पल भर में ध्यान केंद्रित करके महसूस कर सकते हैं। यहाँ पहुँचकर थोड़ा समय सबसे दूर होकर एकांत में जरूर बैठें। यहाँ की आबोहवा व ऊर्जा काफी प्रभावित करने वाली है। आशु पहले ही पार्वती सरोवर के लिए ट्रैक शुरू कर चुका था। इसलिए मैं यहाँ नीचे अकेला ही था। कुछ देर जी भर के कैलाश दर्शन के बाद मैंने भी पार्वती सरोवर के लिए चढ़ाई प्रारंभ कर दी। दरअसल ज्यौंलिंगकांग से पार्वती सरोवर की चढ़ाई मात्र 2 से 3 किलोमीटर की होगी। लेकिन समुद्रतल से लगभग 14,518 फीट की अत्यधिक ऊँचाई होने के कारण यहाँ ऑक्सीजन की काफी कमी महसूस होती है जिस कारण थोड़ा चलने में भी यात्रियों को थकान महसूस होने लगती है।
भीम की धान की खेती
अब हुआ यूँ कि जो पार्वती सरोवर का मुख्य मार्ग था मैं उसपर न जाकर गलती से दूसरे रास्ते पर चढ़ गया। चलते-चलते मैं जहाँ पर जाकर पहुँचा वहाँ कोई भी मौजूद नहीं था। मैं समझ गया था कि मैं भटक गया हूँ। लेकिन मैं खुश था। क्योंकि मैं पहुँच चुका था भीम की धान खेती के पास। और अगर मैं सही रास्ते से होकर पार्वती सरोवर पहुँच जाता तो मुझे यह खूबसूरत भीम की द्वारा लगाई धान की खेती के दर्शन नहीं होते। इसलिए मुझे यह भटकाव फायदेमंद साबित हुआ। पौराणिक कथाओं के अनुसार स्वर्गारोहणी की यात्रा के समय पाँच पाण्डवों में से भीम ने यहाँ धान रोपे थे। तब से यहाँ प्राकृतिक रूप से धान की पौध स्वतः ही पैदा हो जाती है। इतनी ऊँचाई पर धान जैसी फसल जो समशीतोषण जलवायु की फसल है उसके पौधों का यहाँ उगना किसी दैवीय चमत्कार से कम नहीं है। वीडियो भी साझा कर रहा हूँ जिससे आपको समझने में अधिक आसानी होगी।
कैलास के दर्शन यहाँ से पहले से ज्यादा बेहतर ढंग से हो रहे थे क्योंकि अब मैं ज्यौंलिंगकांग से काफी ऊँचाई पर आ चुका था। तेज हवा की सरसराहट, सामने विराट हिम किरीट कैलाश और मैं! अपने भीतर झाँककर देखने और ध्यान लगाने के लिए इससे बेहतर वातावरण शायद ही कुछ और हो सकता होगा। इसलिए मैंने भी कुछ देर गहरा मौन साध लिया और बस चुपचाप कैलाश को देखने लग गया। जब अचानक तेज हवाओं के कारण ठण्ड बढ़ने लगी तो ध्यान आया कि आशु कहाँ होगा? हम पिछले एक घण्टे से एक दूसरे से मिले नहीं थे। वापसी गुँजी भी रवाना होना है, इसी कशमकश में मैं थोड़ा आगे बढ़ा तो नजारा देख और भी खुश हो गया। क्योंकि यहाँ से संपूर्ण पार्वती सरोवर क्षेत्र का विहंगम नजारा दिखाई दे रहा था।
पार्वती सरोवर | Parvati Sarovar
उत्तराखण्ड के कुमाँऊ-हिमालय में सुदूर पूर्वी छोर पर भारत-तिब्बत सीमा पर स्थित यह रमणीय हिमालय झील पार्वती सरोवर है। पार्वती सरोवर, पिथौरागढ़ जनपद के धारचूला तहसील के अंतर्गत ग्राम पंचायत कुटी में 14,872 फीट की ऊँचाई पर पंच कैलाशों में द्वितीय कैलाश श्री आदि कैलाश की तलहटी पर स्थित एक अति पवित्र एंव दिव्य झील है। उत्तुंग हिमशिखरों से घिरी इस झील के संबंध में शिव भक्तों के विभिन्न मत है। पार्वती सरोवर को लेकर ऐसी मान्यता है कि जब भगवान शिव माता पार्वती से विवाह करने के लिए जा रहे थे तब इस स्थान पर रुके थे। भगवान शिव माता पार्वती, भगवान गणेश, कार्तिकेय के साथ यहाँ निवास करते थे। इसलिए यह स्थल भोलेनाथ का सबसे प्रिय स्थल माना जाता है।
जब श्री आदि कैलाश की परछाई इस दिव्य झील पर पड़ती है तो वह दृश्य मन को मोह लेता है। यहीं इस झील के पास शिव-पार्वती का एक सुन्दर मंदिर भी स्थित है जिसे कुटी गाँव के लोगों द्वारा बनाया गया है। सरोवर के पास निर्मित इस मंदिर के इतिहास पर नजर डालें तो ऐसा कहा जाता है कि इस मंदिर की नींव सबसे पहले वर्ष 1971 में कुटी गांव के तीन लोगों श्रीकृष्ण सिंह कुटियाल, जय सिंह कुटियाल और केदार सिंह कुटियाल ने रखी थी। मंदिर का निर्माण करने के बाद ग्रामीणों ने पूजा अर्चना करना शुरू किया। कुटी गाँवों के लोग ही महादेव के इस निवास स्थान के प्रथम उपासक हैं। यह पूरा क्षेत्र वनस्पति विहीन है। यहाँ आपको बर्फ से लदी चोटियाँ, भूरे रंग के नंगे पहाड़ व नीले आसमान के अलावा और कुछ नजर नहीं आऐगा।
अगर आप चुपचाप पार्वती सरोवर के तीर बैठकर इसे बिना सोच-विचार के निहारेंगे तो आप एक असीम आनंद व शांति का अनुभव करेंगे। इस झील के आसपास ऐसी उच्च ऊर्जा का भण्डार है जो आपकी चेतना को तरोताजा व रहस्यमय ढंग से खुशहाल कर देगा। हो सकता है इस मंत्रमुग्ध कर देने वाली खूबसूरत आबोहवा से आपका वापस उस भीड़ भरी दुनिया में जाने का मन न करे। यही कारण है कि जीवन के सत्य व परम आनंद की तलाश में निकले कई खोजी व साधु-संत इस सरोवर के आसपास तपस्य में लीन मिलते हैं। ब्रह्मांड की उस दिव्य घटना के साक्षी यह मूक धवल हिमालयी चोटियाँ ही हैं जिन्होंने प्रकृति की इस दिव्य रचना को रचते हुए देखा होगा। काश ये बोल पाते और हम सुन पाते, हिमालय के आंचल में स्थित इस सरोवर की असल गाथा।
अब मन तृप्त ओ गया था। अब मन का कौतुहल कुछ शांत होने लगा। जिस कैलाश दर्शन की कल्पनाएँ मन रह रहकर रचता रहता था उसे करीब से अनुभव करने के बाद इसकी बेचैनी अब सुस्त पड़ने लगी। यही मन का मैकेनिज्म है। यही है इसका तंत्र व क्रियाविधि। जब तक मन किसी वस्तु को हासिल न कर ले तब तक यह उसके लिए तड़पता रहता है, तब तक मन को उस वस्तु पर खूब रस आता है लेकिन एकबार जैसे ही वह वस्तु हम हासिल कर लेते हैं वैसे ही इसकी तृष्णा उस वस्तु के लिए मर जाती है। अब वो रस नहीं रहता। अब वो बेचैनी नही रहती। वो नयापन नहीं रहता।
अब हमें समय से वापस गुँजी के लिए रवाना होना था। हमने नीचे ज्यौंलिंगकांग के लिए उतरना शुरू किया। कुछ ही देर में हम नीचे उतर चुके थे। लेकिन जैसे ही हम ज्यौंलिंगकांग पहुँचे वैसे ही आशु को सर में दर्द प्रारंभ हो गया। यह अत्यधिक ऊँचाई पर होने वाली आम घटना है जो ऑक्सीजन की कमी के कारण होने वाली थकान की वजह से होता है। थकान से मेरा भी हाल कुछ ठीक नहीं था। इसलिए हमने पास में ही स्थित एक छोटे सी चाय की टपरी में चाय, बिस्कुट व मैगी खाई और कुछ देर वहीं आराम करने लगे। थोड़ा आराम करने के बाद हम अपनी मोटरसाइकिल में बैठ गुँजी के लिए रवाना हो गए। कैलास दर्शन का सुकून और उस खूबसूरत एहसास को साथ लिए जिसे शब्दों में वर्णित करना मेरे लिए बहुत कठिन है हम झूमते-गाते देर शाम तक गुँजी पहुँच गए।
आज के सफल दिन के बाद होमस्टे में जाकर आराम किया और फिर अगले दिन की योजना बनाई। रात का खाना आज जल्दी खा लिया था क्योंकि कल सुबह फिर से जल्दी उठकर हमें नाभीढांग के लिए रावाना होना था। कुछ देर फोन में आज के फोटोग्राफ्स देखे और फिर धीरे-धीरे नींद आ गई।
चौथा दिन – गुँजी से ओम पर्वत
ओम पर्वत की ओर
तिथि – 14 मई 2024
दिन – मंगलवार
प्रस्थान का समय – प्रातः 5.30 बजे
प्रस्थान स्थल – गुँजी
गंतव्य – नाभीढांग
दूरी – 15 किमी
ऊँचाई लाभ – 1,055 मीटर (3,462 फीट)
क्षेत्र – भारत-तिब्बत सीमा (कुमाऊँ-मंडल)
राज्य – उत्तराखण्ड
आज हमारी आदि कैलाश व ओम पर्वत यात्रा का चौथा दिन था। हम सुबह जल्दी उठ गए, अलार्म से पहले ही। सबसे पहले बाहर जाकर देखा तो आसमान में बादल लगे थे। बीते दिन के बजाय आज मौसम खराब था। मन थोड़ा निराश हुआ। लेकिन फिर खुद ही अपने मन को ठोक-पीटकर ठीक किया और चलने की तैयारी शुरू कर दी। आज का रास्ता पूरा कच्चा व उबड़-खाबड मिलने वाला था जिसमें पूरी ऑफ रोडिंग होने वाली थी। हम गुँजी से नाभीढांग के लिए आगे बढ़ रहे थे। नाभीढांग वह स्थान है जहाँ से ओम पर्वत के दिव्य दर्शन होते हैं। गुँजी से नाभीढांग लगभग 12 से 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है जो कि समुद्रतल से ऊँचाई 14,019 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। हम काली नदी के बहाव के विपरीत चल रहे थे। हमारे पास से भारी गर्जन के साथ बहती काली नदी हमारे उत्साह को बढ़ाने के साथ-साथ हमें मानो डरा भी रही थी।
मैं मन ही मन सोच रहा था कि आज काली नदी के उद्गम के भी दर्शन होंगे जो कि एक पवित्र स्थान है। धूप पहाड़ी के उस ओर आ चुकी थी और हम पहाड़ी के पीछे की तरफ थे इसलिए इधर अभी सूर्य की किरणें नहीं पहुँची थी जिस कारण ठण्ड महसूस हो रही थी। सुबह का वक्त था और चारों तरफ बर्फ से ढकी चोटियाँ तो ठण्ड होना स्वाभाविक ही था। काफी चलने के बाद हम कालापानी पहुँच गए जहाँ समुद्रतल से 11,712 फीट की ऊँचाई पर भारत के हिमवीरों भारत-तिब्बत सीमा पुलिस की चैक पोस्ट है। यहाँ इनर लाइन परमिट दिखाना होता है उसी के बाद आगे जाने की अनुमती मिलती है। कालापानी के विषय में आपको विस्तार से जानकारी वापसी में साझा करूँगा।
अभी हमारा लक्ष्य नाभीढांग पहुँचना है। अब यहाँ से चढ़ाई प्रारंभ हो गई। धीरे-धीरे सूर्य भगवान की किरणें भी हम तक पहुँचने लगी। अब हम ओम पर्वत के नजदीक थे। किसी भी पल हमें ओम पर्वत के दिव्य दर्शन हो सकते थे। मेरी नजर मुख्य सड़क से हटकर बार-बार ऊँची चोटियों की ओर जा रही थी। ज्यों-ज्यों नाभीढांग के नजदीक जा रहा था वैसे-वैसे ही मन घबरा रहा था।
ऐसा आदि कैलाश के दर्शनों के वक्त नहीं हुआ। यह अनुभव मैंने आशु को भी नहीं बताया, उसे भी यहीं पहली बार पता चलेगा। मैंने काफी पहले से लगातार ऊँ नमः शिवाय का जाप शुरू कर दिया था और बस ऊँ नमः शिवाय, ऊँ नमः शिवाय करते हुए आगे बढ़ रहा था। अचानक मेरी नजर अपने दाईं ओर पड़ी और सामने दिव्य, विराट महादेव के ओम पर्वत के दर्शन हो गए। अचानक आँखें भर आई। रोना आने लगा। मन भारी हो गया। चिल्लाने का मन करने लगा। एक अजीब सी सनसनाहट हाथ-पैरों में होने लगी। महादेव के इस पवित्र तीर्थ की ऊर्जा मुझे महसूस हो रही थी। वह अनुभव जीवनभर मेरे लिए अविस्मरणीय रहेगा। बस फिर हम नाभीढांग पहुँच गए। मोटरसाइकिल को सुरक्षित स्थान पर खड़ा करके हम चल दिए ओम पर्वत के दर्शन करने।
ओम पर्वत | Om Parvat
आखिर हम अपनी यात्रा के अंतिम छोर तोक पहुँच गए थे। जिसकी मन आजतक कल्पनाएँ किया करता था, जिसे अपने सामने देखना किसी ख्वाब से कम न था, महादेव का वह दिव्य साक्षात्कार स्वरूप ओम पर्वत आज मेरे सामने खड़ा था। जब न समय था और न ब्रह्मांड, और जब कुछ भी नहीं था, तब जो था वो है “ॐ”। और आज उसी ब्रह्मांड के प्रथम नाद, ब्रह्मांड की प्रथम व मूल ध्वनि ‘ॐ’ को जिसे स्वंय प्रकृति (शिव) ने रचा है का दर्शन मैं अपनी नग्न आँखों से कर रहा था। समय की वो क्या बेला रही होगी जब इस चराचर को रचने वाला इस पर्वत को रच रहा होगा! वो क्या क्षण रहा होगा जब व्यास घाटी के सुदूर इस छोर में ओम पर्वत की चोटी पर बर्फ पहली दफा प्राकृतिक रूप से ॐ का आकार ले रही होगी!
न जाने कितनी ही बार इस पल को मैंने अपनी कपोल कल्पनाओं में देखा था! और न जाने कितनी ही बार यहाँ होने की इच्छा मन में उठती रही थी! गुजरते समय के इन क्षणों को मैं महसूस कर पा रहा हूँ। मेरे अंतर्मन को मौन व एकाकी करता यह पल मेरे जीवन के सबसे गहरे अनुभवों में शामिल हो गया। सिंधुतल से 5,590 मीटर (18,340 फीट) की ऊँचाई पर स्थित ओम पर्वत, उत्तराखण्ड में पिथौरागढ़ जनपद के धारचूला तहसील के अंतर्गत पवित्र कैलाश मानसरोवर यात्रापथ पर भारत-नेपाल-तिब्बत सीमा पर स्थित है। शिव पुराण में वर्णन है कि ओम की उत्पत्ति ब्रह्मांड के निर्माण से पहले हुई थी। पौराणिक ग्रंथों और लोककथाओं में कहा गया है कि हिमालय पर कुल 8 प्राकृतिक ओम की आकृतियाँ बनी हुई हैं। इनमें से अबतक केवल ओम पर्वत की ही आकृति के बारे में पता चल सका है जिसे नाभीढांग से ओम पर्वत के रूप में आसानी से देखा जा सकता है। धन्य है हिमालय और धन्य है यह धरा।
|| हर हर महादेव || || ॐ नमः शिवाय! ||
नाभीढांग
नाभीढांग दो शब्दों के संधि से मिलकर बना है। नाभी व ढांग। पहाड़ी के इस ओर जहाँ से खड़े होकर ओम पर्वत के दर्शन होते हैं वह नाभीढांग का “ढांग” वाला हिस्सा है। और पहाड़ी के उस ओर “नाभी” वाला हिस्सा है। नीचे छायाचित्र साझा कर रहा हूँ जिसे ध्यानपूर्वक देखने पर आपको “नाभी” सी आकृति नजर आऐगी। इसलिए पहाड़ी के उस हिस्से को नाभी कहा जाता है। और ढांग उत्तराखण्ड में पहाड़ी टीले को कहा जाता है। यह स्थान कदाचित ऊँचाई पर स्थित है इसलिए इसे ढांग कहकर संबोधित किया जाता है। अतः इस प्रकार इस संपूर्ण क्षेत्र को नाभीढांग कहकर परिचय दिया जाता है।
नन्दी पर्वत
वैसे तो यह संपूर्ण क्षेत्र रहस्यों से भरा पड़ा है। चारों ओर भगवान शिव के होने के साक्ष्य मौजूद हैं। लेकिन कुछ ऐसे साक्ष्य हैं जिन्हें मानव ने सुलझा लिया है। उनमें से ही एक यहाँ मौजूद ‘नन्दी पर्वत’ है। नीचे छायाचित्र चित्र साझा किया है। ध्यान से देखने पर पहाड़ी पर नन्दी की आकृति बनती हुई प्रतीत होगा। चमत्कार और अध्यात्म की शक्ति दोनो ही एक साथ अनुभव हो रहे हैं।
शेषनाग पर्वत
नाभीढांग से दूर कालापानी की तरफ को नजर आता शेषनाग पर्वत रोमांचित करता है। भगवान शिव का धाम हो और नाग देवता आसपास न हो कैसे हो सकता है। हमें नाभीढांग में तैनात हिमवीरों ने ही बताया कि यहाँ चारों ओर बहुत से रहस्य छिपे हैं उनमें से नन्दी पर्वत और शेषनाग पर्वत एक हैं।
लिपुलेख दर्रे के पार जाने को उत्सुक मेरा व्याकुल मन
नाभीढांग में हमें ओम पर्वत को निहारते हुए करीब एक घण्टे से अधिक समय हो गया था। इस यात्रापथ का यह अंतिम पड़ाव था। इसके बाद वापसी घर जाना था लेकिन मन अभी शायद कुछ और सोचने लग गया था। मेरा मन नाभीढांग से आगे झाँककर उस पार की खूबसूरत घाटी व वहाँ की बसासत को देखना चाहता था। और यह मुझे तब महसूस हुआ जब अचानक आशु ने चलने का इशारा किया। तभी मन अचानक सतर्क हो गया और कहने लगा कि,”नहीं, अभी नहीं!” अब आगे क्या? मैं सोचने लगा। और वो सब भीतर दबा हुआ बाहर आने लगा। दरअसल अब मुझे नाभीढांग से दूसरी तरफ लिपुलेख दर्रे से तिब्बत की ओर झाँकने की तीव्र इच्छा हो रही थी। नाभीढांग से लिपुलेख दर्रा मात्र आठ-नौ किलोमीटर की दूरी पर था। जहाँ से तिब्बत की सीमा प्रारंभ होती है। यहीं से 1962 से पूर्व में भारत-तिब्बत व्यापार संचालित हुआ करता था व कैलाश मानसरोवर के लिए यहीं से भारत के शौका यात्री तिब्बत में प्रवेश करते थे। उस जगह के मैं इतने करीब था जहाँ से आसानी से हम कैलाश के दर्शन कर सकते थे। लेकिन अभी किसी को भी वहाँ जाने की अनुमती नहीं है। 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद इस उच्च हिमालयी मार्ग को बंद कर दिया गया व चीन ने अपने कब्जे वाले क्षेत्र तिब्बत में भारतीयों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया।
मन कल्पनाएँ रचने लगा। काश वहाँ जा पाना संभव होता तो मैं भी लिपुलेख दर्रे से कैलाश के दर्शन अपनी नग्न आँखों से कर पाता और यहीं से उन्हें शीष झुका पाता और साथ ही देख पाता अन्नपूर्णा की विशाल चोटियों को भी, जो अपने दिव्य स्वरूप से स्वर्ग सी आभा का निर्माण कर रही होंगी। मैं सोचने लगा कि जब सांझ होने पर कैलाश के दूर क्षितिज में लालिमा छाती होगी तो वह दृश्य कितना मनमोहक होता होगा। लिपुलेख दर्रे के पार के दृश्यों को मेरा मन आँखों में लाने लगा। मैं जानता था इस लिपुलेखलिपुलेख के पीछे गुरला मान्धाता पर्वत खड़ा होगा। जो इस पहाड़ी के उस पार तिब्बत के विशाल पठारों के मध्य में दक्षिणी तिब्बत और पश्चिमोत्तरी नेपाल में विस्तृत मानसरोवर झील के पास स्थित 25,243 फीट की ऊँचाई पर अविरल खड़ा है। अहा! वो गुरला मान्धाता कितना मनमोहक नजर आता होगा जब चिड़ियों के झुंड उसके पास से होकर उड़ते होंगे। पूर्व में भारत के कैलाश यात्री जब इस शुष्क भोटांतिक प्रदेश में नालाकंकर हिमाल श्रेणी के सदस्य पर्वत गुरला मन्धाता को देखते होंगे तो उन्हें यकीनन, प्राचीन भारत में सूर्य राजवंश के उस राजा मन्धाता की याद जरूर आती होगी जिसने इन्द्र को परास्त करके अमरावती पर विजय की थी। अतः जिस विजय को यादगार बनाने के लिये मानसरोवर के किनारे खड़े इस पर्वत का नाम ‘मन्धाता’ रखा गया। ‘गुरला’ यहाँ पास में स्थित एक पहाड़ी दर्रे का नाम था जो पर्वत के नाम के साथ जुड़ गया।
Source : Flicker
मेरे जिज्ञासू व घुमक्कड़ड मन ने कैलाश यात्रा को लेकर अपनी ही एक दुनिया बना ली थी उस आधार पर मैं जानता था कि लिपुलेख के उस पार तिब्बत के विशाल पठारों में पसरे होंगे घुमंतू तिब्बतियों की छोलदारियाँ (टैण्ट), जो हर रोज यूँ ही देख लिया करते होंगे अंधियारी रातों की विराट चुप्पी व मानसरोवर के गुप्त नाद के वंदन के बीच उस महा कैलाश को जिसे ये आँखे अपने जीते जी बस एक बार तो जरूर देखना चाहती है। मुझे उन घुमंतू तिब्बतियों की छोलदारियों के भीतर होने वाली बातचीत भी सुनाई दे रही थी। कैसे वो भोट लोग बर्फ गिरने से पहले निचले स्थानों में जाने की योजना बना रहे होंगे। कैसे उनके याक चरते-चरते दूर कैलाश की तरफ निकल चुके होंगे, कैसे उनके छोटे-छोटे बच्चों के रूई जैसे गाल तिब्बत की सर्द हवाओं से जलकर लाल हो चुके होंगे। वहीं पास एक बड़े से चूल्हे में जो शायद ही कभी भुजता हो, तिब्बत की पो चा पक रही होगी जो कि तिब्बतियों की मशहूर बटर टी है। जिसे वो याक के मक्खन को मथकर उसमें नमक डालकर बनाते हैं।
स्रोत – इंटरनेट
मैं ख्याल बुनने लगा सिंधु नदी के उद्गम व मानसरोवर से निकलती ब्रह्मपुत्र के सुन्दर किनारों का। इन्हीं सब कपोल कल्पनाओं में डूबे हुए कब मेरे चारों ओर चुप्पी फैल गई पता ही नहीं चला। अचानक मन मष्तिष्क में सन्नाटा सा छा गया। लेकिन अपनी इस सपने से मुझे बाहर आना ही था। क्योंकि अब वापस घर की तरफ सफर करना था। मैंने यहीं नाभीढांग से ही ईश्वर द्वारा रचित धरती के इस विराट रंगमंच के केंद्र कैलाश व नीले महाताल और दो पर्वतमालाएँ और उनके धवल शिखरों को जी भर के जी लिया था। अपनी आत्मा में बसा लिया था। मानसिक रूप से तो मैं मानसरोवर होके आ चुका था अब बस भौतिक रूप में किसी दिन इस घटना के होने का इंतजार रहेगा।
कालापानी
काली नदी का उद्गम
हमें अब यहाँ से वापस रवाना होना था। मन तो नहीं था नाभीढांग को छोड़कर जाने का पर जाना पड़ा। मोटरसाइकिल स्टार्ट की ओर निकल पड़े गुँजी की तरफ। जो खूबसूरती हम ऊपर चढ़ते वक्त नहीं देख पाए वो अब हमें नीचे उतरते हुए नजर आ रही थी। हाँलाकि सड़क पथरीली होने के कारण मेरा ज्यादातर ध्यान सड़क पर ही बना था लेकिन रह रहकर मैं नजारों के भी लुत्फ उठा रहा था। जो मेरे साथ मोटरसाइकिल राइड कर चुके हैं वो इस बात को बखुबी जानते हैं कि मोटरसाइकिल चलाते वक्त मेरा ध्यान सब जगह होता है बस सड़क को छोड़कर! और यह गलत आदत इसी लालसा के कारण लगी है कि कहीं सफर में कुछ देखना रह न जाए। कुछ ही देर में हम कालापानी पहुँच गए।
कालापानी काली नदी का उद्गम स्थल है। सिंधुतल से लगभग 11,860 फीट की ऊँचाई पर लिपुलेख दर्रे के निकट भारत और नेपाल की सीमा पर काली नदी के उद्गम में माँ काली का बेहद सुंदर मंदिर स्थित है। काली माता मंदिर के पास से निकलने के कारण ही इसे काली नदी नाम मिलता है। वर्ष 1816 की सुगौली की संधि के तहत काली नदी ही भारत-नेपाल के मध्य अंतरराष्ट्रीय सीमा बनाने का काम करती है। यहीं पास की एक विशाल चोटी पर महर्षी व्यास की गुफा नजर आती है। जिसे मंदिर में रखी दूरबीन से आप आसानी से देख सकते हैं। अत्यधिक ऊँचाई पर होने के कारण यह नग्न आँखों से आसानी से नजर नहीं आती। ऐसी किंवदंती है कि यहीं वेद व्यास जी को माँ काली ने अपने दर्शन दिए थे एंव यहाँ उनका मंदिर स्थापित करने के लिए कहा था। तब से इस स्थान पर माँ काली का मंदिर स्थित है।
गुँजी से अल्मोड़ा
जागेश्वर धाम की ओर
काली मंदिर दर्शन किए और अपनी यात्रा को पूर्ण करते हुए हम गुँजी के लिए आगे बढ़ गए। सुबह हम खाली पेट ही नाभीढांग के लिए निकल गए थे और अब तकरीबन 9 बजने को थे इसलिए भूख लगने लगी थी। कुछ देर बाद हम गुँजी पहुँच गए और फिर वहाँ रूककर हमने सबसे पहले कुछ खाया और अपना बैग उठाया और धारचूला के लिए आगे बढ़ गए। अब यहाँ कहानी में एक नया कौतुक शुरू होने जा रहा है। दरअसल हमने तय किया था कि हमें दिन में लगभग 2 बजे तक धारचूला पहुँचना है। आते वक्त हम धारचूला भ्रमण नहीं कर पाए थे इसलिए मैंने वापसी में धारचूला रूकने की इच्छा जाहिर की लेकिन आशु कुछ-कुछ तैयार नहीं दिख रहा था। खैर वहाँ पहुँचकर ही तय कर लेंगे ऐसा सोचकर हमने नीचे उतरना प्रारंभ कर दिया। जितना वक्त हमें धारचूला से गुँजी पहुँचने में लगा उतना वक्त हमें वापस गुँजी से धारचूला पहुँचने में नहीं लगा। हम लगभग 1 बजे तक धारचूला पहुँच गए थे। मौसम शुष्क व गरम था। थकान होने लगी थी। ठण्ड से अचानक हम गर्म इलाके में आ गए थे इसलिए शायद। फिर हमने धारचूला में रूककर दोपहर का खाना खाया और वहीं रेस्टोरेंट में कुछ देर सुस्ताने लगे। अंत में धारचूला रूकने में सहमती नहीं बन पाई और फिर हमने पिथौरागढ्र के लिए सफर शुरू किया ये सोचकर कि पिथौरागढ़ पहुँचते पहुँचते तो रात हो ही जाऐगी तो वहीं रूकना हो जाऐगा। लेकिन धारचूला भ्रमण का मेरा अधुरा मन पुनः मुझे यहाँ खींच लाऐगा यह मैं अच्छे से जानता था।
काफल
धारचूला से आगे जौलजीबी के पास यह बच्चे हमें जाते हुए भी नजर आए थे जो हाथ में छोटी-छीटी टोकरी लिए हुए आते-जाते वाहनों को रोक-रोक कर काफल बेच रहे थे। जाते हुए, समय के अभाव के कारण हम इनसे काफल नहीं खरीद पाए थे लेकिन वापसी में जब हमें ये बच्चे फिर से नजर आए तो दूर से ही मैंने मोटरसाइकिल की गति कम करनी शुरू कर दी, क्योंकि अब मैं इनसे काफल खरीदकर खाना चाहता था। उत्तराखण्ड के लघु हिमालय वन क्षेत्रों में पाया जाने वाला फल, काफल एक बेहद स्वादिष्ट जंगली फल है। लाल-गुलाबी रंग का दिखने वाला काफल स्वाद में खट्टा-मीठा होता है। जैसे ही मैंने मोटरसाइकिल रोकी वैसे ही यह दो नन्हे आत्मनिर्भर हमारे पास आ गए। हमने दोनो से ही एक-एक पैकेट काफल के खरीदे। मात्र बीस रूपए का दाम चुकाकर हमने कुमाऊँ वन क्षेत्र में पैदा हुए, माँ प्रकृति द्वारा प्रदत्त मीठे काफलों का स्वाद चख लिया था। ऊपर से इनके द्वारा घर से ही लाए हुए एक विशेष प्रकार के नमक ने काफलों का स्वाद और भी बड़ा दिया। गर्मी के कारण जो गला सूख रहा था वो अब इन काफलों को खाकर गीला हो चुका था। हमने जब इनकी पढ़ाई-लिखाई के विषय में पूछा तो इन्होंने बताया कि सुबह हम विद्यालय जाते हैं और दिन में घर आकर काफल बेचते हैं। कुछ दिनों के इस काफल की ऋतु बीत जाने के बाद न जाने इनका यह कौशल और किस काम आऐगा। काफल खाने के बाद मैंने इन बच्चों से एक फोटो खिंचवाने का आग्रह किया जिसे इन्होंने अपनी कोमल मुस्कान मुझे भेंट करते हुए स्वीकार कर लिया।
पिथौरागढ़ से अल्मोड़ा
आराम-आराम से शाम को मोटरसाइकिल में कुमाऊँ की सुन्दर वादियों का आनन्द लेते हुए हम 6 बजे लगभग पिथौरागढ़ पहुँच गए। पिथौरागढ़ में मुझे कुछ काम था। वो काम निपटाते-निपटाते 7 बज गए और अब धीरे-धीरे अंधेरा होने लगा। अब हमें तय करना था कि आज रात कहाँ रकना है? अब मेरा मन भी पिथौरागढ़ रूकने का नहीं हो रहा था। अब मुझे नाइट राइड का मजा लेना था। आशु भी तैयार था। वो भी आज ज्यादा से ज्यादा दूरी तय करना चाहता था। हांलाकि हमारा यह निर्णय शायद गलत भी था क्योंकि हम काफी थक चुके थे और रात भी हो रही थी। तो अच्छा तो यही होता कि हम आज पिथौरागढ़ ही रूक जाते और कल सुबह यहाँ से आगे का सफर शुरू करते। लेकिन हमने इसके ठीक विपरीत किया। अब आगे की कहानी कुछ ऐसी होने वाली है कि मैंने आदि कैलाश यात्रा की योजना बनाते वक्त ही तय कर लिया था कि वापसी में हम अल्मोड़ा होते हुए आऐंगे। मेरी आदत है अक्सर जिस रास्ते से जाता हूँ उसी रास्ते से वापस नहीं आता। किसी और रास्ते से वापसी करता हूँ। इसके पीछे का कारण होता है एक ही बारी में ज्यादा से ज्यादा जगहों का भ्रमण करना, जिस वजह से सफर में नयापन बना रहता है।
पिथौरागढ़ में जिस जगह मैं अपना काम निपटा रहा था वहाँ उपस्थित एक सज्जन को मैंने पूछा कि क्या रात्रि में अल्मोड़ा के लिए सफर करना सुरक्षित होगा? क्या रास्ते में कोई बड़ा बाजार आऐगा जहाँ हम रूक सकें? तब हमें उन्होंने बताया कि,” यहाँ से लगभग 64 किलोमीटर दूर अल्मोड़ा- पिथौरागढ़ मार्ग पर दन्या नामक बड़ा बाजार पड़ता है। अगर तुम वहाँ तक पहुँच जाओ तो वहाँ रात्रि-विश्राम कर सकते हो”। फिर हमने चलना प्रारंभ किया। पिथौरागढ़ से 28 किलोमीटर दूर नीचे घाट था जहाँ से हमें रामगंगा पुल को पार करके गंगोलीहाट का रास्ता पकड़कर आगे पनार पुल से बाईं ओर मुड़ना था जो रास्ता हमें अल्मोड़ा पहुँचा देता। जैसे ही हम घाट पहुँचे वैसे ही हमारे शुभचिंतक व मार्गदर्शक बड़े भाई सहाब अजय जी से संपर्क हो गया जो कि पिथौरागढ़ के ही निवासी हैं। जब उनको मैंने आज रात दन्या के आसपास रूकने की योजना बताई तो उन्होंने सुझाव दिया कि,” तुम दन्या न रूककर सीधे वृद्ध जागेश्वर पहुँचों, वहाँ मैं तुम्हारे रूकने की व्यवस्था बना देता हूँ”। आज के थकान भरे दिन के बाद, करीब 8 बजे रात टनकपुर-पिथौरागढ़ मार्ग पर यह हमारी अंतिम योजना थी जिसका अब हम अनुसरण करने वाले थे। घाट से वृद्ध जागेश्वर लगभग 65 किलोमीटर था।
हमने मोटरसाइकिल स्टार्ट की और चल दिए। पहाड़ों में रात के समय सड़कों में आवा-जाही न के बराबर हो जाती है। इसलिए हमें भी रास्ते में काले अंधेरे और गहरे सन्नाटे के अलावा कोई नजर नहीं आ रहा था। हम बस मोटरसाइकिल की रोशनी के सहारे सड़क को देखते हुए तंद्रा युक्त अवस्था में आगे बढ़ रहे थे। जब मानसिक थकान और मोटरसाइकिल का क्लच व ब्रैक दबा-दबा कर थकान चरम पर थी तब मुझे रात्रि चलने के हमारे फैसले पर गुस्सा आने लगा। सोचा आराम से कहीं रूक ही जाते। मई का महीना था इसलिए कुमाऊँ के जंगलों में लगी आग रात को आसानी से नजर आ रही थी। आग की वजह से धुंध व गर्मी महसूस हो रही थी जो हम थके हुए प्राणियों को परेशान करने के लिए काफी थी। लेकिन जैसे ही अगले मोड़ पर पिथौरागढ़ व अल्मोड़ा सीमा पर स्थित गाँवों की खूबसूरत सी नजर आने वाली टिमटिमाती लाइटें नजर आई तब थोड़ा-बहुत अच्छा महसूस हुआ। होते करते हम रात लगभग साढ़े दस बजे अपने आज के होमस्टे तक पहुँच गए। थकान इस कदर हो गई थी कि जाते ही हमने बिस्तर पकड़ लिए और फिर सीधा सुबह ही उठे।
वृद्ध जागेश्वर दर्शन
रातभर की थकान के बावजूद हम अगली सुबह जल्दी उठ गए और स्नान आदि करके पास ही स्थित वृद्ध जागेश्वर मंदिर दर्शन के लिए चले गए। जागेश्वर धाम से कुछ ही दूरी पर एक ऊँची पहाड़ी पर यह दिव्य स्थान है जहाँ शिव जी श्री विष्णु रूप में पूजे जाते हैं। ऐसी किंवदंती है कि एक बार युद्ध में जाने से पूर्व कुमाऊँ के चंद राजा ने इस स्थान पर एक शिला के ऊपर गाय के थनों से स्वतः ही दूध की धार निकलते देखी। जब उसने उस स्थान के नजदीक जाकर देखा तो वहाँ स्वयंभू शिव लिङ्ग विद्यमान था। राजा ने उस पवित्र शिवलिंग की पूजा अर्चना की और वचन दिया कि युद्ध में विजयी होने के पश्चात् यहाँ मंदिर की स्थापना करेगा। तब से इस स्थली में स्वयंभू शिवलिंग की पूजा अर्चना भगवान विष्णु के रूप में किए जाने की विशिष्ट परंपरा जीवित है। हमने अपनी इस यात्रापथ पर यहाँ आने के बारे में सोचा भी नहीं था लेकिन फिर भी हमें इस प्राचीन तीर्थ के दर्शन हुए यह हमारे लिए सौभाग्य की बात थी।
जागेश्वर धाम दर्शन
उसके बाद वहीं से एक ऑफ रोडिंग रास्ते से होते हुए हम जागेश्वर धाम पहुँच गए। जागेश्वर धाम, अल्मोड़ा नगर से 35 किमी की दूरी पर जटागंगा के किनारे 125 छोटे-बड़े मन्दिरों का समूह है, जिनमें 25 मंदिर अभी भी ठीक अवस्था में हैं। कुमाऊँ मंडल के प्रमुख देवस्थलों में सम्मिलित जागेश्वर धाम को उत्तराखण्ड का पांचवा धाम कहा जाता है। इस तीर्थ की गणना द्वादश ज्योतिर्लिंगों में की जाती है। इस देवस्थल में देव मंदिर तथा मूर्तियाँ दर्शनीय हैं। पौराणिक मान्यता के अनुसार यह भगवान शिव की तपस्थली है। 8वीं से 10वीं शताब्दी में निर्मित इन कलात्मक मन्दिरों का निर्माण कत्यूरी राजा शालिवाहन देव ने कराया था। यहाँ जागनाथ, महामृत्युंजय, पंचकेदार, डंडेश्वर, कुबेर, लक्ष्मी व पुष्टि देवी के मन्दिर प्रमुख हैं। यहाँ का सबसे प्राचीन मंदिर मृत्युंजय मंदिर व सबसे विशाल मंदिर दिनदेशवारा है। यहाँ के प्रायः सभी मंदिर केदारनाथ शैली में निर्मित हैं। सिंधुतल से लगभग छह हजार फीट की ऊँचाई पर स्थित यह पौराणिक मंदिर देवदार के घने वृक्षों से घिरा है जो इसकी सुंदरता को और भी खूबसूरत व आकर्षक बनाता है। हमने करीब एक घण्टे मंदिर का अच्छे से दर्शन करने के बाद अपने अगले गंतव्य चितई के लिए प्रस्थान किया।
चितई गोलू देवता मंदिर दर्शन
जागेश्वर धाम से प्रसिद्ध गोलू देवता मंदिर तकरीबन 27 किलोमीटर दूर था। जागेश्वर धाम के आसपास घने देवदार के पेड़ों की ओट को छोड़कर अब कुछ-कुछ हम चीड़ वन क्षेत्र से होकर गुजर रहे थे। अल्मोड़ा के पास असीम आस्था एवं श्रद्धा का स्थल चितई गोलू देवता मंदिर अल्मोड़ा से लगभग 11 किमी ० की दूरी पर है। गोलू देवता कुमाऊँ क्षेत्र में न्याय के देवता के रूप में पूजे जाते हैं। पूरे देश और दुनिया से लोग-बाग अपनी-अपनी समस्याओं के निवारण के लिए यहाँ आते हैं। इस मंदिर की परंपरा के अनुसार यहाँ लोग अपनी शिकायतें अथवा अपनी मनोकामनाओं को पत्र के माध्यम से गोलू देवता तक पहुँचाते हैं। मंदिर परिसर में गोलू देवता को भेजे गये हजारों पत्र टंगे दिखते हैं तो वहीं मनोकामना पूर्ण होने पर श्रद्धालुओं द्वारा अर्पित घंटियां परिसर में झूलती देखी जा सकती हैं। मैं पहली दफा इस मंदिर के दर्शन कर रहा था। यहाँ टंगे हजारों-हजार पत्रों को देखकर मैंने देवभूमि उत्तराखण्ड की इस पुण्य तीर्थ पर लोगों की महान आस्था को नमन किया।
लोग यहाँ अपनी-अपनी समस्याओं व मनोकामनाओं को गोलू देवता को सौंप जाते हैं और देवता इनकी इच्छाओं को पूरी कर देते हैं। यही कारण है कि चितई गोलू देवता का यह मंदिर अपने न्याय के लिए दूर-दूर तक मशहूर है। यूँ तो उत्तराखण्ड में गोलू देवता के कई मंदिर हैं, लेकिन इनमें से सबसे लोकप्रिय और आस्था का केंद्र अल्मोड़ा जिले में स्थित चितई गोलू देवता का मंदिर है। जितनी संख्या में यहाँ पत्र टंगे हुए नजर आते हैं उतनी ही संख्या में आपको यहाँ घण्टियाँ भी नजर आऐंगी जो कि जनमानस की इच्छा पूर्ण होने का प्रमाण होती है। दूर-दूर से आए भक्तों की जब गोलू देवता मंदिर में आकर मनोकामना पूरी हो जाती है तो भक्त खुश होकर यहाँ घंटी चढ़ाते हैं। इसी कारण मंदिर में लाखों अद्भुत घंटे-घंटियों का संग्रह हैं। उत्तराखण्ड ही नहीं बल्कि विदेशों से भी गोलू देवता के इस मंदिर में लोग न्याय मांगने के लिए आते हैं। मंदिर की घंटियों को देखकर ही आपको इस बात का अंदाजा लग जाएगा कि यहाँ मांगी गई किसी भी भक्त की मनोकामना कभी अधूरी नहीं रहती। हमें अच्छे से दर्शन हुए और फिर हमने अपने अगले गंतव्य कैंची धाम के लिए प्रस्थान किया।
अल्मोड़ा से नैनीताल
परम पूज्य बाबा नीम करौरी महाराज कैंची धाम दर्शन
|| मम आराध्यम् शरणांगतम् ||
|| जय वीर हनुमाना ||
अपनी पिछले कई दिनों की महादेव शिव के परम धाम आदि कैलाश व ओम पर्वत की यात्रा के अंतिम दिन अब हम बाबा जी के सबसे प्रिय धाम कैंची आश्रम पहुँच चुके थे। उत्तराखंड राज्य के कुमाऊँ-मंडल के मुख्यालय जनपद नैनीताल में शिप्रा नदी के किनारे सिंधुतल से 4,587 फीट की ऊँचाई पर बाबा नीम करौरी महाराज जी का आश्रम कैंची धाम एक दिव्य स्थान है। जब आदि कैलाश की यात्रा की योजना बना रहा था तो यह तय हो गया था कि बाबा जी का दर्शन भी अवश्य ही करना है। देवभूमि उत्तराखण्ड व हिमालय सदा से ही ऋषि-मुनियों की तपोभूमि रही है। यहाँ की सुरम्य व हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाओं में अनेक देव ऋषि आज भी रहस्यमय ढंग से तपस्य में लीन हैं। उसी तरह बीसवीं शताब्दी के सबसे महान संत व समकालीन भक्तों के एकादशरुद्रावतार कलियुग में हनुमान जी के परम भक्त या यूँ कहें स्वयं हनुमान जी के रुद्रावतार, श्री श्री बाबा नीम करौरी जी महाराज, अपनी अलौकिकतापूर्ण दैवी गुणों, कर्मों एवं स्वभाव को धारण कर हमारे मध्य, अपनी अलौकिक लीलाओं के माध्यम से भवताप से पीड़ित अपने जन्म-जन्म के चरणाश्रितों, अनगिनत दीनों, शापित मनुष्यों एवं भगवद्भक्तों को दैहिक, दैविक एंव भौतिक तापों से मुक्त करने हेतु आए।
पूरी देश और दुनिया से लोग महाराज जी का आशीर्वाद लेने कैंची धाम आते हैं। बाबा जी ने अपने भक्तों के लिये आश्रमों में ही नहीं, अपितु उन्हीं के घरों में ही स्वर्ग का निर्माण कर दिया। दोनों हाथों से अपने अक्षय भंडार से वैभव मुक्त भाव से लुटाकर बिना पात्र-कुपात्र, संत-असंत, भक्त-अभक्त की भावना के! बाबा के विषय में लिखने व कहने का दुस्साहस मैं नहीं कर सकता। क्योंकि वो अनन्त हैं। अकल्पनीय हैं। समय से परे हैं। महाराज जी के दर्शन कर हमारी यह यात्रा संपूर्ण हो गई। मन में एक असीम शांति का प्रवाहमान होने लगा। पिछले कई दिनों से चल रही भागमभाग अब थम रही थी। मन-मष्तिष्क में चल रहे विचार सहसा कहीं विलीन से होन लगे। मेरा ह्रदय धन्यवाद व कृतज्ञता से भरने लगा। समस्त ग्राम देवताओं को याद किया, देवभूमि उत्तराखंड के समस्त सिद्ध स्थानों व पीठों का ध्यान किया और दिल से उनका धन्यवाद करते हुए कैंची आश्रम से हमने नैनीताल की ओर सफर प्रारंभ कर दिया।
एक छोटी सी शाम नैनीताल के नाम
इस सफर की यह आखिरी शाम थी। नैनीताल की सुरम्य व ठण्डी आबोहवा में हम अपने इस सफर की विदाई कर रहे थे। छुट्टियां चल रही थी, इसलिए नैनीताल सैलानियों से भरा पड़ा था। जिधर देखो उधर भीड़तंत्र व गाड़ी-मोटर का शोर। नैनीताल पहुँचकर सबसे पहले हमने अपने रात्रि-विश्राम की व्यवस्था की। तत्पश्चात हम नैनीताल की माॅल रोड़ भ्रमण पर निकल पड़े। पर्यटन की दृष्टि से उत्तराखण्ड की नैनीताल झील, भारत में झीलों की सैर करने वाले पर्यटकों के लिए उत्साह और उमंग से पूर्ण सुखद सैरगाह है। ताल के दोनों ओर सड़क बनी है। ताल का ऊपरी भाग मल्लीताल और निचला भाग तल्लीताल कहलाता है।
झील के किनारे और आसपास की पहाड़ियों पर लगभग 12 वर्ग किमी० में फैले दिलकश नजारों को संजोये नैनीताल पर्यटकों की पहली पसंद बन चुकी है। मैंने काफी देर तक माॅल रोड़ से सटी झिलमिलाती नैना झील के किनारे सैलानियों की चहल-कदमी और उनके चेहरों पर आनन्द और चंचलता के मिश्रित भावों को झलकते देखा। झील के एक छोर से दूसरे छोर तक फैली मालरोड पर अत्याधुनिक परिवेश में नैनीताल उल्लास और उमंग से सैलानियों को गुदगुदाता है। झील में जलतरंगों की तरह ही पर्यटकों के मन की उमंग देखते ही बनती है। झील का सबसे बड़ा आकर्षण है बोटिंग। यहाँ मालरोड पर रिक्शे की सवारी भी दिलचस्प है। जीवन की भागदौड और तनाव से मुक्त होने कैसे दूरदराज से लोग यहाँ सुकून के कुछ पलों की तलाश में आए हुए हैं। प्रकृति का यह सुन्दर उपवन इन्हें कुछ क्षण के लिए तरो-ताजा कर देगा। दुनिया में आजतक ऐसी प्रयोगशाला नहीं बनी और न ही कभी बनेगी जो माँ प्रकृति की इस सुन्दरता को हमें उपलब्ध करा सके। चाहे हमने बहुत दौलत कमा ली हो, चाहे हमने ऊँचे-ऊँचे भवन खड़े कर लिए हों, भले ही हमने बड़े-बड़े कारखाने स्थापित कर लिए हों लेकिन जब कभी हमें मानसिक शांति, आत्मिक सुख और सुकून की जरूरत होगी तो तब यह प्रकृति, जंगल, नदी-झरने, पहाड़ ही काम आऐंगे। नैना झील के पास खड़े होकर हमने भी कुछ छायाचित्र निकाले और फिर नैनीताल का प्रसिद्ध स्ट्रीट फूड चखा।
हिमालय की सुन्दर पहाड़ियों से घिरी इस खूबसूरत सरोवर में धीरे-धीरे अंधेरा छाने लगा। भीड़ भी कम होने लगी। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो दुनियाभर की भीड़तंत्र को सुखद एहसास से भरने के बाद अब नैना झील भी आराम करना चाहती है। दिन भर इसपर चलती सैकड़ो नौकाओं ने मानो इस सुन्दर सरोवर को थका दिया हो। इस पर मौजूद जलजीव भी जैसे अब नैनीताल के शोर से छुटकारा पाना चाहते हों और गहरी नींद लेना चाहते हों, भले ही कुछ देर के लिए ही सही। हमने वहाँ कुछ देर रूककर इस खालीपन को भी महसूस किया और फिर खाना खाकर अपने होटेल की तरफ बढ़ चले। यह इस सफर की अंतिम रात थी। कल हम अपने घर पर होंगे। कुछ देर बातचीत के बाद नैनीताल शहर की तरह हम भी गहरी नींद में सो गए।
कोटद्वार की ओर अंतिम सफर
उत्तराखण्ड के सुदूर पूर्वी छोर पर स्थित सीमांत जनपद पिथौरागढ़ व कुमाँऊ-हिमालय भ्रमण का यह आखिरी दिन था। हम सुबह करीब 5 बजे उठ गए थे। हमने तय किया था कि दिन की चटक धूप आने से पहले हम आधा सफर तय कर लेंगे। मोटरसाइकिल पर बैठते ही पूरी यात्रा एक पल में मेरी आँखों में आने लगी। मैंने हिमालय का ऐसा विस्तृत और आलौकिक फलक पहले कभी नहीं देखा था जो मुझे अपनी इस आदि कैलाश व ओम पर्वत यात्रा में देखने को मिला। हिमालय के आंचल में दर्जनों ग्लेशियरों से निकलने वाली वेगवान नदियों व घुमावदार घाटियों से होकर मोटरसाइकिल राइड करते हुए हिमालय की विराट विविधता का दर्शन मेरे जीवन की कुछ सबसे खूबसूरत व यादगार यात्राओं में शामिल हो गया। नैनीताल से निकलते हुए वो सब झलकियाँ मन-मष्तिष्क में प्रकट होने लगी जो हमने इस यात्रापथ पर देखी थी। हिमालय पार तिब्बत के उदास पठारों की वो कल्पना जो मैंने नाभीढांग से की थी जैसे मेरे अंतर्मन में पुनः जीवंत होने लगी थी। जिस तरह पहाड़ों में हिमालय की निचली घाटियो में दूर से ही घरों के चूल्हों व आसपास कुछ जलावन से निकलता धुँआ वहाँ रहने वाली बसासतों के जीवन्तता का एहसास करा देता है ठीक उसी प्रकार घर वापसी के आज के इस सफर में मेरे मन में भी पिछले कुछ दिनों की यात्रा का धुँधलका छाने लगा था। देखेते ही देखते हम नैनीताल से 205 किलोमीटर की दूरी पर महर्षि कण्व की तपस्थली और चक्रबर्ती सम्राट राजा भरत की जन्मस्थली कण्वाश्रम की सीमा पर स्थित कण्व नगरी कोटद्वार में प्रवेश कर गए।
वर्तमान समय की भागदौड़ भरी दिनचर्या व रील्स एंव विडिओ की आसान व सरल मानसिक सुविधा को त्याग कर, अपना बहुमूल्य समय निकालकर आपने इस यात्रा वृतांत को इतने मन व इत्मीनान से पढ़ा उसके लिए मैं आपका आभारी हूँ। पिछले ब्लॉग की तरह आपको यह यात्रा वृतांत भी पसंद आऐगा ऐसी उम्मीद है। अपनी प्रतिक्रिया व आशीर्वाद आप कमेंट्स के माध्यम से प्रकट कर सकते हैं। मैं आपके आशीष वचनों को पढ़ने के लिए लालायित रहूँगा। अंत में इस वादे के साथ कि आगे भविष्य में घुमक्कड़डी के अनेकों किस्सों को लेकर मैं आपके बीच पुनः आता रहूँगा, आपसे विदा ले रहा हूँ। पुनः ह्रदय से धन्यवाद।
हर हर महादेव!
जय श्रीराम!
जय वीर हनुमान!
Follow
I absolutely loved reading your latest post on spiritual travel(Om Parvat and Adi Kailash)and adventure! Your vivid descriptions and insightful reflections truly transported me to those serene and breathtaking destinations. It’s clear that you have a deep appreciation for both the physical beauty and the spiritual significance of the places you visit. Your writing not only inspires a sense of wanderlust but also encourages deeper personal reflection. Keep up the fantastic work—I’m already looking forward to your next adventure!
Thank you very much for taking the time to read my travel story. I am also deeply grateful for your kind words which have filled me with new energy, freshness, and enthusiasm. The positive feelings you have expressed through your words will always serve as an inspiration for me. I would also love to join you on an adventurous travel journey. The company of like-minded people makes the journey even more exciting and thrilling.
बहुत सुन्दर भाई ❤️
धन्यवाद मित्र।
बहुत सुन्दर यात्रा का वृत्तांत लगा की मानो हम ही घूम रहे हो.ऐसे ही और प्राकर्तिक नज़रो के दर्शन करते रहिये
धन्यवाद भय्या। आपका आशीर्वाद मिलता रहेगा ऐसी उम्मीद है।
Kyaaaa khooob likhte ho bahut hi sundr♥️♥️♥️♥️
बहुत-बहुत धन्यवाद जी।
जीवंत यात्रा वर्णन, मानो खुद यात्रा का हिस्सा रहे हों। बहुत खूब। भविष्य के लिए शुभकामनाएं ।
आपने पढ़ने के लिए समय निकाला उसके लिए दिल से धन्यवाद।